राष्ट्रीय शिक्षा नीति या बहिष्करण की नीति?
Author – ऋतू बाला and मनोज कुमार
वर्तमान मानव संसाधन विकास मंत्री श्री रमेश पोखरियाल तथा पूर्व में इसी मंत्रालय में मंत्री रहे प्रकाश जावड़ेकर ने शिक्षा नीति 2020 लांच की। दोनों ने इसे भविष्य के लिए एक शानदार दस्तावेज बताया। यूजीसी द्वारा आयोजित एक संगोष्ठी में प्रधानमंत्री ने इसे भविष्य के भारत निर्माण के लिए जरूरी दस्तावेज बताया है। अकादमिक हलकों में भी इस नीति पर काफी चर्चाएं हो रही हैं। जहां सरकार का समर्थन करने वाले लोग इसे उत्कृष्ट दस्तावेज बता रहे हैं वहीं विरोधी इसे शिक्षा को निजीकरण की तरफ धकेलने वाला दस्तावेज बता रहे हैं। इस पूरी बहस में इस बात पर ज़्यादा चर्चा नहीं हुई है कि देश की बहुसंख्यक आबादी की शिक्षा पर इससे क्या प्रभाव पड़ने जा रहा है। प्रस्तुत आलेख में इसी दृष्टि से इस शिक्षा नीति को समझने की कोशिश की गई है।
एक तरफ इस नीति में प्रवेश से लेकर प्रोन्नति तक में ‘मेरिट’ को एक मुख्य आधार के रूप में प्रस्तावित किया गया है वहीं दूसरी ओर सामाजिक न्याय को नाम मात्र की जगह मिली है. जातिप्रधान देश में ‘जाति’ का नाम तक इस नीति में दिखाई नहीं देता तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होनी चाहिए! भारत के इतिहास और संस्कृति को एक सीमित भौगोलिक क्षेत्र और काल तक संकुचित कर दिया गया है. इसी का नतीजा है कि सामाजिक न्याय के आंदोलन की एक समृद्ध परंपरा को पूरी तरह से नज़रंदाज़ कर दिया गया है.
आगे बढ़ने से पहले इस शिक्षा नीति की प्रमुख बातों को जान लेना आवश्यक है। उसके पश्चात बहुजन आबादी पर पड़ने वाले इसके असर का क्रमवार विश्लेषण किया जाएगा। शिक्षा नीति 2020 की जिन प्रमुख विशेषताओं को विभिन्न पटलों पर रेखांकित किया गया है उनमें से प्रमुख है: 1. आरंभिक स्तर पर मातृभाषा या परिवेश की भाषा 2. व्यवसायिक शिक्षा पर जोर 3. साक्षरता एवं गणना पर जोर 4. स्वायत्तता 5. स्कूल कंपलेक्स और 6. डिजिटल एजुकेशन या ऑनलाइन शिक्षा।
शिक्षा का माध्यम मातृभाषा
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के इस प्रावधान की काफी चर्चा हो रही है। बताया जा रहा है कि प्रारंभिक स्तर पर शिक्षा मातृभाषा या परिवेश की भाषा में दी जाएगी। लेकिन बहुजन दृष्टि से देखें तो यह एक बहुत ही खतरनाक कदम साबित होगा। यह बात किसी से नहीं छुपी है कि अंग्रेजी सत्ता की भाषा है। रोजगार एवं उच्च शिक्षा व अन्य अवसरों के लिए अंग्रेजी की भूमिका महत्वपूर्ण है। आज जब बहुजन आबादी ने स्कूलों एवं कॉलेजों में अपने कदम रखने शुरू किए हैं तो अंग्रेजी भाषा से उन्हें वंचित रखने की साजिश की जा रही है। ऐसा नहीं है कि सरकार सही नीयत से यह प्रावधान लेकर आ रही है। महंगे एवं एलिट निजी स्कूलों में यह प्रावधान लागू नहीं किया जाएगा बल्कि यह निचले दर्जे के सरकारी स्कूलों तक की महदूद रहेगा। देश की बहुसंख्यक आबादी जिनमें दलित, पिछड़े, आदिवासी एवं मुस्लिम हैं, इन सरकारी स्कूलों में अपने बच्चों को भेजते हैं। शिक्षा मंत्रालय के अधीन आने वाले केंद्रीय विद्यालय संगठन ने हाल ही में इस प्रावधान को लागू करने से मना कर दिया है । जाहिर है कि सरकारी स्कूलों में भी यह आम जन के स्कूलों पर ही थोपा जाएगा।
व्यवसायिक शिक्षा
प्रधानमंत्री ने जबसे स्किल इंडिया कार्यक्रम की घोषणा की है वर्तमान सरकार इसे लेकर काफी गंभीर नजर आ रही है। नई शिक्षा नीति ने इसी कड़ी में यह प्रस्तावित किया है कि कक्षा 6 से ही व्यवसायिक शिक्षा के दरवाजे खोल दिए जाएंगे। व्यवसायिक शिक्षा के अंतर्गत कई पेशेगत कार्य जैसे बाल काटना, जूते बनाना, लकड़ी का काम आदि हो सकते हैं। भारत जैसे जाति प्रधान देश में व्यवसाय अक्सर जाति आधारित होते हैं और स्कूली स्तर पर ऐसे व्यवसायिक कोर्स पहले से चली आ रही जाति व्यवस्था को और प्रगाढ़ करने का काम ही करेंगे। इस बात को लेकर आश्वस्त हुआ जा सकता है कि निजी स्कूलों में कम से कम वो व्यावसायिक कोर्स तो नहीं ही पढ़ाये जायेंगे जो सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बहुजन विद्यार्थी पढ़ेंगे।
साक्षरता एवं गणना पर जोर
साक्षरता एवं गणना पर जोर राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 का मुख्य सरोकार है। एक अंग्रेज़ी अख़बार में प्रकाशित आलेख में शिक्षा मंत्री रमेश पोखरियाल ने बताया भी कि इस नीति के तहत स्कूली शिक्षा के केंद्र में ‘साक्षरता और गणना’ तथा ‘व्यावसायिक शिक्षा’ रहेंगे। कहने तात्पर्य यह है कि शिक्षा को अब साक्षरता तक सीमित किया जायेगा। दूसरे शब्दों में कहें तो ‘कम से कम इतना आना चाहिए’ का अर्थ होगा ‘इतना ही आना चाहिए’! एक बड़ी आबादी को सिर्फ़ थोड़ा बहुत पढ़ना और जोड़ना सिखा दिया जाये जिससे वो सेवा करने लायक़ हो जाये। शिक्षा इंसान को सोचने समझने और उसे व्यवहार में उतारने के साथ सवाल उठाना सिखाती है लेकिन इस नीति में शिक्षा को साक्षरता तक सीमित कर दिया गया है. इससे भी अधिक 10वीं और 12वीं में बोर्ड की परीक्षाओं को सरल बनाने पर जोर दिया गया है ताकि बिना किसी गंभीर अध्ययन के विद्यार्थियों को पास कर दिया जायेगा जिससे उच्च शिक्षा के लिए उन्हें नाक़ाबिल घोषित करना आसान हो जाये। ऐसे में यहाँ तक पहुँचे बचे-खुचे बहुजन विद्यार्थियों को दूरस्थ या व्यावसायिक कोर्सों की तरफ़ धकेल दिया जायेगा। इससे मंत्रालय के नए नामकरण पर भी प्रश्न खड़े होते हैं जहाँ एक तरफ़ इसका नाम बदलकर शिक्षा किया जाता है वहीं दूसरी तरफ़ बहुजनों को दी जाने वाली शिक्षा को महज़ साक्षरता में बदल दिया जाता है।
स्वायत्तता
स्वायत्तता को शिक्षा नीति में काफी तरजीह दी गई है। स्वायत्तता से यहाँ अभिप्राय इसके वास्तविक अर्थ से नहीं है अपितु यहाँ इसका अर्थ है कि सरकार शिक्षा संस्थानों को पैसा नहीं देगी बल्कि ये संस्थाएँ अपना सञ्चालन स्वयं करेंगी। 1990 के बाद उच्च शिक्षा में बहुजनों की भागीदारी बढ़ने लगी। इस भागीदारी को बढ़ाने में सरकारी शिक्षा संस्थाओं की बड़ी भूमिका रही है क्योंकि इनमें न सिर्फ सस्ती शिक्षा उपलब्ध थी बल्कि सामाजिक-आर्थिक कमजोर पृष्ठभूमि से आने वाले विद्यार्थियों के लिए हॉस्टल, स्कॉलरशिप आदि की विशेष सुविधाएँ भी उपलब्ध थी। शिक्षा नीति 2020 में जिस तरह की स्वायत्तता की बात की गई है और शिक्षा संस्थानों से अपने संसाधन स्वयं जुटाने को कहा जा रहा है उससे शिक्षा और महँगी ही होगी। क्योंकि जब सरकार पैसे नहीं देंगी तो ये संस्थान विद्यार्थियों की फीस से ही अपने संसाधन जुटाएंगे। इसकी मार भी सबसे ज्यादा बहुजन वर्ग से आने वाले विद्यार्थियों पर ही पड़ेगी।
स्कूल कॉम्प्लेक्स
1964-66 में आए कोठारी आयोग ने ‘स्कूल कॉम्प्लेक्स’ की बात की। एक इलाके में कई प्राथमिक, उससे कम माध्यमिक और उससे भी कम उच्चतर माध्यमिक स्कूल होते हैं। इसलिए ये स्कूल कॉम्प्लेक्स ऐसे होंगे जहाँ प्राथमिक स्कूल और माध्यमिक स्कूल के बीच एक कड़ी होगी। जैसे दिल्ली में फीडर स्कूल होते हैं जहाँ MCD या प्राथमिक विद्यालय के विद्यार्थी अपने समीपवर्ती माध्यमिक या उच्चतर माध्यमिक स्कूल में प्रवेश पाते हैं। लेकिन शिक्षा नीति 2020 इस संकल्पना को बिल्कुल उलट देती है। इसमें फीडर स्कूल की बजाय ध्यान ‘संसाधनों के बांटने’ पर होगा। उदाहरण के लिए एक स्कूल कॉम्प्लेक्स में 5 स्कूल हैं और किसी एक में ही खेल का मैदान है। पहले हर स्कूल में कुछ न्यूनतम मापदंड होने जरूरी थे जिनमें से एक खेल का मैदान भी है। लेकिन अब स्कूल कॉम्प्लेक्स के आने से सब स्कूलों में मैदान/पुस्तकालय/कम्प्यूटर की कमी को ढका जा सकेगा। यही नहीं अगर स्कूलों में शिक्षक नहीं होंगे तो उनका भी ‘वितरण’ किया जाएगा और एक दिन एक स्कूल तो दूसरे दिन दूसरे स्कूल भेजा जाएगा। जाहिर है ‘स्कूल कॉम्प्लेक्स’ की यह संकल्पना सार्वजानिक शिक्षा के हित में तो नहीं ही होगी।
डिजिटल एजुकेशन या ऑनलाइन शिक्षा
कोरोना महामारी के दौरान देखा गया कि किस प्रकार ऑनलाइन शिक्षा ने औपचारिक शिक्षा की जगह ले ली है। हालाँकि बहुत से अध्ययन बताते हैं कि एक बहुत बड़ा तबका ऑनलाइन शिक्षा को वहन नहीं कर सकता। लेकिन सरकारें ऑनलाइन शिक्षा को औपचारिक शिक्षा के विकल्प के तौर पर पेश कर रहीं हैं। ऑनलाइन शिक्षा की सबसे ज्यादा मार अगर किसी को झेलनी पड़ी है और आगे भी पड़ेगी तो वो हैं सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़े लोग। ऑनलाइन शिक्षा प्राप्त करने के लिए संसाधन नहीं होने के कारण केरल में एक दलित विद्यार्थी तथा दिल्ली में एक अभिभावक द्वारा आत्महत्या करना अभी हाल ही के उदाहरण है. शिक्षा नीति ऑनलाइन शिक्षा को बढ़ावा देकर समाज में पहले से व्याप्त असमानता को बढ़ाने का काम ही करेगी।
जितनी जरुरत इस नीति की विषय-वस्तु और उद्देश्यों की आलोचनात्मक पड़ताल करने की है, उतनी ही गंभीरता से हमें इसके बनने व घोषित करने की प्रक्रिया को देखना चाहिए। भारत के संविधान के तहत शिक्षा समवर्ती सूची का विषय है जिसका मतलब है कि यह राज्यों के अधिकार क्षेत्र में भी आती है। इसी कड़ी में केंद्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड (CABE) जैसी संस्था ने, जिसमें प्रत्येक राज्य के शिक्षा मंत्री की भागीदारी होती है, राष्ट्रीय स्तर पर शिक्षा पर बनने वाली नीतियों में एक अहम् भूमिका निभाई है। लेकिन इस बार राष्ट्रीय शिक्षा नीति को घोषित करने से पहले न संसद के पटल पर सार्वजनिक बहस के लिए रखा गया और न ही CABE को सलाह मशविरे के लिए विश्वास में लिया गया। किसी भी नीति को ‘राष्ट्रीय’ पुकारने से पहले यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि वह उस संवैधानिक प्रक्रिया व लोकतान्त्रिक उसूलों से गुजरी है जो कि एक विषमतापूर्ण सामाजिक व्यवस्था को समानता व सामाजिक न्याय की दिशा में ले जाने के लिए जरुरी है।
संविधान के आदर्शों व बहुजन विरोधी शिक्षा नीति को ‘राष्ट्रीय नीति’ कहने पर हमें न सिर्फ गंभीरता से सोचना चाहिए बल्कि संविधान सम्मत बहुजन हितैषी शिक्षा नीति की माँग करनी चाहिए।
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