शाहूजी महाराज को याद करते हुए


बहुजन महानायकों में एक “शाहूजी महाराज” का आज ही के दिन 26 जून, 1874 में जन्म हुआ था। शाहूजी महाराज एक सच्चे समाज-सुधारक और प्रजातंत्र पर विश्वास रखने वाले व्यक्तित्व के धनी थे। शाहूजी महाराज पर अंग्रेजी शिक्षा का प्रभाव अच्छा-खाशा पड़ा था। वे वैज्ञानिक सोच को तरजीह देने के साथ पुराने रीति-रिवाज और काल्पनिक बातों को महत्त्व कम ही देते थे।

2 अप्रेल, 1894 में बीस वर्ष की आयु में कोल्हापुर रियासत के राजा के रूप में उनका राज्याभिषेक किया गया। जिस समय राज्य का नियंत्रण शाहूजी महाराज के हाथ में आया था, उस समय देश के अन्य हिस्सों की भांति कोल्हापुर में भी ब्राह्मणों का वर्चस्व स्थापित था। शाहूजी महाराज को राज्य की सत्ता संभालने के बाद ब्राह्मणों द्वारा कई बार अपमानित होना पड़ा, चूंकि वो शूद्र थे इसलिए उनके स्नान के समय भी पंडित वैदिक मंत्रोच्चार न कर पौराणिक मंत्रोच्चार करते थे।

इसी के चलते शाहूजी महाराज के सहयोगियों ने एक “नारायण भट्ट” नामक पंडित को यज्ञोपवीत संस्कार करने के लिए राजी किया तो कोल्हापुर के ब्राह्मणों ने उस पंडित पर कई तरह की पाबंदी लगाने की भी धमकी दे डाली। इस घटना के बाद शाहूजी महाराज ने जब अपने राज-पुरोहितों से सलाह ली, तो राज-पुरोहितों ने इस दिशा में कुछ बोलना उचित नहीं समझा, यहाँ तक कि ये बात जब “बाल गंगाधर तिलक” को पता चली तो उन्होंने भी ब्राह्मणों का पक्ष लेते हुए महाराज की निंदा की। इसी के बाद महाराज ने राज-पुरोहित को बर्खाश्त कर दिया।

सन् 1901 में शाहूजी महाराज ने अस्पृश्यों-शूद्रों की जनगणना कराई और उनकी दयनीय स्थिति से सबको अवगत कराया। इसके बाद सन् 1902 में शाहूजी महाराज राजा एडवर्ड-VII के राज्याभिषेक के अवसर पर इंग्लैण्ड गए और वहीं से उन्होंने 26 जुलाई, 1902 को कोल्हापुर राज्य के अंतर्गत शासन-प्रशासन के 50% पद निम्न वर्गों के लिए आरक्षित कर दिए। इस आदेश के बाद ब्राह्मणों के बीच अफरा-तफरी मच गयी। जैसे उनके ऊपर बहुत बड़ी गाज गिरी हो…

इस आदेश से पहले कोल्हापुर के सामान्य प्रशासन के 71 पदों में से 60 पदों पर ब्राह्मण कुंडली मारकर बैठे हुए थे और 500 लिपिकिय पदों में 490 पदों पर भी ब्राह्मण ही बैठे हुए थे, इसलिए उनके आदेश के बाद ब्राह्मणों में अफरा-तफरी मचना स्वभाविक सा था।

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शाहूजी महाराज ने जब सन् 1902 में अपनी रियासत में निम्न वर्गों के लिए 50% आरक्षण लागू किया, तो पड़ोसी राज्यों के ब्राह्मणों में भी अफरा-तफरी मच गयी, उन्हें भारी कष्ट हुआ और इसी कष्ट को लेकर “गणपत राव अभ्यंकर” जो सांगली की पटवर्धन रियासत में मुनीम थे। वे कोल्हापुर आकर शाहूजी महाराज को जाति आधारित आरक्षण न देने की सलाह देते हैं। शाहूजी महाराज ब्राह्मण गणपत राव की बात सुनकर उन्हें घोड़ों की अस्तबल में ले गए। अस्तबल के सभी घोड़े मुंह बंधे थैले के चने खा रहे थे। महाराज ने आदेश दिया कि सभी घोड़ों के मुंह में बंधे थैलों को खोलकर उनमें से चनों को निकालकर नीचे एक बड़ी दरी में डाल दिया जाए।

आदेश का पालन होते ही जो तगड़े घोड़े थे वो कमजोर घोड़ों को परे ढकेलते हुए दरी पर रखे हुए हुए चनों पर टूट पड़े और कमजोर घोड़े ताकतवर घोड़ों की दुलत्ती के बाहर होकर एक तरफ खड़े हो गए। यह तमाशा देख शाहूजी महाराज ने ब्राह्मण गणपत राव अभ्यंकर से पूछा- अभ्यंकर! मैं इन कमजोर घोड़ों का क्या करूँ? उन्हें गोली मार दूँ? इन सबालों का जवाब अभ्यंकर को देते नहीं बन रहा था, उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि शाहूजी महाराज को क्या कहें…इसलिए अभ्यंकर ने वापस अपनी रियासत में जाना ही उचित समझा।

शाहूजी महाराज महात्मा फुले से प्रभावित थे और उन्होंने उन्हीं की भांति शिक्षा को सबसे ज्यादा महत्व देते हुए अपने राज्य में मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा लागू की। बहुजनों के बीच शिक्षा का प्रचार-प्रसार और उसका विस्तार हो सके इसके लिए उन्होंने बीच-बीच में शिक्षा समितियों का भी गठन किया। शाहूजी महाराज का मानना था कि बहुजनों में व्याप्त अज्ञानता एवं धर्मांधता को दूर करके ही उन्हें गुलामी की जंजीरों से मुक्त किया जा सकता है। वे शिक्षित होंगे तो उनमें आत्मविश्वास और स्वाभिमान जागेगा तब वे आसानी से मित्र और शत्रु की पहचान कर सकेंगे, अपने अस्तित्व और अपना इतिहास खोजेंगे तथा स्वतंत्रता हेतु संघर्ष कर अपने अधिकारों को प्राप्त करेंगे।

शाहूजी महाराज ने बहुजनोद्धार के लिए कई कदम उठाये और उन्होंने जातिप्रथा को विचित्र और सामाजिक बुराई माना। इन्हीं सब वजहों से ब्राह्मणों ने उन्हें “ढोरों (जानवरों) का राजा” तक कहा।

15 जनवरी, 1919 को शाहूजी महाराज ने अपने राज्य में अस्पृश्यता के व्यवहार को प्रतिबंधित करने के लिए एक आदेश पारित किया –

“सभी सार्वजनिक धर्मशालाओं, इमारतों, अस्पतालों तथा अन्य सार्वजनिक रहने के स्थानों, स्कूलों, कुओं, तालाबों, नदियों आदि स्थानों पर छुआछूत को अमल में नहीं लाया जाएगा।…ऐसी घटनाओं को रोकने की जिम्मेदारी गांवों के नियुक्त अधिकारियों की होगी। यदि ऐसी छुआछूत की घटनाएँ होती हैं तो उसकी जवाबदेही अधिकारियों की होगी और उन्हें ही ऐसी घटनाओं का जिम्मेदार माना जाएगा।”

22 अगस्त, 1919 को उन्होंने अस्पृश्यता तथा भेदभाव को समाप्त करने के लिए राज्य के विभागों में और प्रशासन के भेदभाव को रोकने के लिए राज्य के अधिकारियों को निर्देशित करते हुए एक अन्य ऑर्डर दिया –

“सभी अधिकारी फिर चाहे वे राजस्व के हों या न्याय संबंधी या अन्य विभागों के, वे राज्य की नौकरियों में आए अस्पृश्यों से भेदभाव नहीं करेंगे। वे उनके साथ समता एवं समानता का व्यवहार करेंगे। यदि कोई सरकारी कर्मचारी इस आदेश से नाखुश है तो या आदेश का पालन नहीं कर सकता तो उसे छ: सप्ताह के भीतर नोटिस देकर अपने पद से इस्तीफा देना होगा और वह कोई भी पेंशन पाने का अधिकारी नहीं होगा।”

शाहूजी महाराज ने बहुजनों के उत्थान के लिए ऐसे कई कदम उठाये और सभी को संदेश दिया कि मनुष्य के साथ मनुष्यता का ही व्यवहार किया जाना चाहिए, पशुता का नहीं। उन्होंने अपने राज्य में 3 मई, 1920 को बेगारी प्रथा (बंधुआ मजदूरी) पर भी रोक लगा दी और आदेश दिया कि यदि कोई सवर्ण उक्त आदेश का पालन नहीं करेगा तो उसकी भरपाई उसके वेतन से की जाएगी व उसका वेतन कुर्क कर दिया जाएगा और उसे बिना पेंशन दिए नौकरी से बेदखल कर दिया जाएगा।

शाहूजी महाराज को कांग्रेस के गोपाल कृष्ण गोखले तथा गोपालराव ने कांग्रेस में शामिल होने के लिए भी कहा था, किन्तु उन्होंने यह कहते हुए मना कर दिया कि कांग्रेस ब्राह्मणों की पार्टी है और जातिप्रथा पर विश्वास करती है, उसमें शामिल होने से कोई लाभ नहीं।

इसके अलावा जब 11 नवम्बर, 1917 को “बाल गंगाधर तिलक” ने यवतमाल, महाराष्ट्र में भाषण देने के दौरान कहा था कि “तेली, तमोली, कुनबटों (कुर्मी), माली, दर्जी को क्या संसंद में हल चलाना है या कपड़े सिलना है। बहुजनों को अपना परम्परागत पेशा नहीं छोड़ना चाहिए। उन्हें मैट्रिक या हायर सैकेण्ड्री शिक्षा प्राप्त नहीं करनी चाहिए। अपनी प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद उन्हें चमड़े का काम करना चाहिए, कुम्हार को मटके बनाना चाहिए।”

शाहूजी महाराज ने 15 अप्रैल, 1920 को नासिक में तिलक की कड़ी आलोचना करते हुए कहा था कि तिलक को इस तरह के शब्दों का प्रयोग करते हुए शर्म आनी चाहिए…

1917 से 1920 के बीच शाहूजी महाराज और बाबासाहेब डॉ. अंबेडकर भी मिले और विभिन्न विषयों पर आपस में चर्चाएं की। 21-22 मार्च, 1920 को कोल्हापुर रियासत के माण गांव (कागल) में शाहूजी महाराज ने अस्पृश्यों का विशाल सम्मेलन कराया, जिसमें छत्रपति शाहूजी ने कहा – “मेरा विश्वास है कि डॉ. अंबेडकर के रूप में आपको अपना मुक्तिदाता मिल गया है। वह आपकी बेड़ियाँ (दासता की) अवश्य ही तोड़ डालेंगे। यही नहीं, मेरा अन्त:करण कहता है कि एक समय आएगा जब डॉ. अंबेडकर अखिल भारतीय प्रसिद्धि और प्रभाव वाले एक अग्रणी स्तर के नेता के रूप में चमकेंगे।”

30 और 31 मई तथा 1 जून, 1920 को नागपुर में आयोजित त्रिदिवसीय सम्मेलन में शाहूजी महाराज ने अपने भाषण के दौरान कहा –

“किसी भी मनुष्य के लिए अस्पृश्य शब्द निंदनीय है। आप सभी के लिए यह शब्द प्रयोग में आता है, यह भ्रांति है। दरअसल, आप हिन्दी राष्ट्र के ज्यादा बुद्धिमान, ज्यादा पराक्रमी, ज्यादा सुविचारी और ज्यादा स्वार्थत्यागी घटक हो। कुछ लोगों ने बनावटी और स्वार्थवश ऊँच-नीच का भाव पैदा करके धर्म को ही नीचे गिराया और अपने ही बंधु-बांधवों को पशुवत् बनाया। अंग्रेजी राज ने मनु और धर्मशास्त्र, जो जातिवाद को, असमानता को बढ़ावा देते हैं, हटाकर मानवतावादी कायदे-कानून लागू किए और हिन्दी प्रजा में सम-समान अधिकार स्थापित किए। राष्ट्रीयता की भावना और सामाजिक समता का आदर्श रखा। लेकिन उसे भी इन लोगों (ब्राह्मणों/सवर्णों) ने आगे नहीं बढ़ने दिया। मिशनरियों ने पाठशालाएँ प्रारम्भ की, हमारे अस्पृश्य समाज के बच्चों के साथ ममता का व्यवहार किया, इन्हें यह भी नहीं सुहाया।”

शाहूजी महाराज का यह भाषण इतना सहानुभूतिपूर्ण, करुणा और प्रेममयी भाषा में था कि सम्मेलन में उपस्थित बाबासाहेब डॉ. अंबेडकर सहित अन्य बहुजन प्रतिनिधियों की भी आँखों में आँसू आ गए थे।

शाहूजी महाराज आजीवन बहुजनों के उद्धार के लिए कार्य करते रहे। उन्होंने हमेशा अपने आपको शासक के रूप में न रखकर बहुजनों का मित्र व हितैषी के रूप में रखा।

लेखक – Satyendra Bauddh

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