भारत के राष्ट्रीय दल – बाबासाहेब द्वारा ‘मूकनायक’ के लिए 10 अप्रैल 1920 को लिखा गया छठवां संपादकीय


कोई भी सार्वजनिक काम हो, यदि कोई कहता होगा कि मैं उसे अकेला ही कर लूंगा, किंतु वह काम उससे हो ही नहीं पाएगा। तथापि समझदार लोगों को उसके अहंकार व अकड़ पर तरस आएगा। मनुष्य के विचार कितने भी उदार हों, किंतु उसे लोगों का सहयोग न मिला, तब विचार पंगु होकर उनका कृति में रूपांतर नहीं हो पाता है। जब तक ऐसा नहीं हुआ तब तक उदार विचार का होना-ना होना एक जैसा ही है, यही कहना पड़ेगा। कारण यह है कि विचारों के अनुसार यदि दुनिया का व्यवहार नहीं बदला, तब मानव मात्र को कोई भी लाभ नहीं होता है। इसीलिए कार्य की दृष्टि से देखने पर कर्तव्य परायण लोगों में एकता होना अति आवश्यक है। परंतु सम्मिलन के लिए सृष्टि के निर्जीव अथवा सजीव प्राणियों में समान धर्म होना चाहिए। जैसा पानी व तेल, पाषाण व काष्ठ धातु में संयोग नहीं होता, वैसा ही शेर व बकरी, बिल्ली और चूहा, अंग्रेज और फ्रेंच, जर्मन व अमेरिकन, इटालियन व ग्रीक , पारसी व ईसाई, हिंदू और मुसलमान, ब्राह्मण व ब्राह्मणेत्तर इत्यादि में संयोग नहीं होता है। “समानशील व्यसने व्यसनेषृ सख्यम” यह न्याय चहुँ ओर लागू पड़ता है। जीत व जीतने वाला, स्वामी व सेवक, धनी व गरीब इनमें भी निकटता नहीं दिखाई देती है। इसी न्याय के कारण अंग्रेज व नेटिव, उग्र व शांत के बीच संयोग नहीं होता है। इसका कारण यह है कि यह असमान धर्मी हैं। किस दल के साथ हमारा संयोग हो सकता है? इसकी हम चर्चा करना चाहते हैं, परंतु वह चर्चा करने से पहले वर्तमान में जो दल अस्तित्व में हैं, उनमें शील (सदाचार) कितना है? इसकी जांच पड़ताल करना आवश्यक है।

अनंत दशा चक्रों के बीच भ्रमण करते-करते यह देश अंग्रेजी सत्ता के अधीन कैसे आया? यह इतिहास बताने की आवश्यकता कोई नहीं है। गिरते मुसलमान व चढ़ते मराठों को झुका कर अंग्रेजों ने अपनी सत्ता स्थापित की। यह इतिहास सर्वश्रुत है। एक ही बात ध्यान रखने योग्य है कि प्रजा दल नामक जो चीज है, वह एकदम नई न होकर अंग्रेजी राज्य में ही उसका बीजारोपण हुआ है। अनेक आक्रमण इस देश पर हुए, मुसलमानों ने अनेक वर्षों तक इस देश पर शासन किया। “हो जाओ मुसलमान अन्यथा छांटते हैं गर्दन” इस फरमान के मुताबिक हिंदू धर्म की चोटी को कत्ल किया गया। पुर्तगीज लोगों ने अपनी बस्तियां बसाई, अनेक लोग ईसाई धर्मानुयायी हुए। डच आये, फ्रेंच आये,परंतु मराठों में कोई चेतना नहीं। जिधर-उधर केवल उदासीनता ही पसरी थी। प्रजा में चेतना का अभाव था। आने दो किसी को भी, हमारा क्या जाता है? इस भावना में डूबी हुई प्रजा अंग्रेजों के राज में उदासीन रहती है, तो इसमें आश्चर्य किस बात का? मुसलमान अथवा मराठों की गैर-जिम्मेदार सत्ता के विरोध में प्रजा ने कभी विद्रोह नहीं किया। इस दृष्टि से देखा जाए तो मुस्लिम या मराठों के राज से कहीं अधिक ब्रिटिश राज में प्रजा का सुख प्राप्त हो रहा है। फिर भी प्रजा ने अंग्रेजी सत्ता के विरोध में अपना दल खड़ा किया है। यह सहजता से समझ में न आने वाली बात है। जिन हिंदी (भारतीय) लोगों में एक तरह की स्थिरता व तटस्थता देखी जाती है, वैसी स्थिरता व तटस्थता विश्व के किसी भी देश में शायद ही देखने को मिले! जिस तटस्थता को लेकर सभी पाश्चात्य देशों में चर्चा थी, वह स्थिरता व तटस्थता समाप्त होकर उसका पर्यावसन विलक्षण चेतना में हो गया है। इसे सृष्टि का एक चमत्कार ही कहना होगा। परंतु इस चमत्कार के लिए ब्रिटिश राजसत्ता ही उत्तरदायी है, यही कहना पड़ेगा। ब्रिटिश राज के पहले प्रजा के बीच एकता का भाव न पैदा होने के अनेक कारण हैं। अनेक धर्म, अनेक जाति, अनेक भाषा आदि के कारण प्रजा का एक रूप होना संभव नहीं था। तथापि जनता के आचार-विचार का नियमन करने वाली शक्ति यानी सरकार एक ही होती, तो हिंदी प्रजा अवश्य एकता के सूत्र में बंधी होती।

अमेरिकन संयुक्त संस्थान के लोग हिंदुस्तान की भांति भिन्न धर्म, भिन्न जाति, विभिन्न भाषा के हैं। फिर भी अमेरिकन प्रजा में कितनी एकता है, यह बात हाल ही में समाप्त हुए युद्ध से ज्ञात हो जाती है। इसके विपरीत यूरोप के लोग एकधर्मीय होकर भी उनमें एकता का अभाव है, व वैमनस्य बहुत अधिक है। यह तो सबके देखने में आया है। यूरोप की भांति हिंदुस्तान की जनता में एकता भाव उत्पन्न नहीं हो पाया, इसका कारण यह है कि ब्रिटिश सत्ता के पूर्व यूरोप की तरह हिंदुस्तान में भी एक मजबूत सरकार नहीं थी। एक सरकार होने के परिणाम स्वरुप हम सब नागरिक एक कानून में बांधे गए। एक ही शासन प्रणाली के अंतर्गत सुख-दुख की अनुभूति करने वाले हम लोगों में एकता की भावना जागृत हुई। इस भावना के लिए एकछत्र राज्य जैसा दूसरा महत्वपूर्ण कारण और नहीं है।

हिंदी प्रजा को एकता के सूत्र में बांधने के लिए जितना अंग्रेजी राज्य जिम्मेदार रहा, उतना ही अंग्रेजी भाषा का प्रचार भी उत्तरदायी रहा। अंग्रेजी भाषा के प्रसार के कारण भिन्न-भिन्न प्रांत के लोगों में विचार विनिमय तथा आचार विनिमय होकर एकता की भावना सुदृढ़ हुई। इस प्रकार एक हुई प्रजा में व्याप्त अनुवांशिक उदासीनता, तटस्थता व स्थिरता जाकर उसमें स्वअधिकार की चेतना उत्पन्न होने के लिए अंग्रेजी सत्ता के राजनीतिक इतिहास का गहन अध्ययन उपयोगी रहा। ‘प्रजा यानी भेड़’ तथा ‘राजा यानी भेड़-पालक,’ इस भावना अनुसार चेतना की लगाम को जो कोई आएगा, उसके हाथों में देकर प्रजा लापरवाह होकर आचरण करती है। राजा से प्रजा श्रेष्ठ तथा राजा ने प्रजा के अनुरोध अनुसार राज्य करना चाहिए। सारांश यह है कि प्रजा ही राजा तथा प्रजा की चेतना की डोर उसी के हाथों में हो, ऐसा दंभ भरने वाला प्रजादल अंग्रेजी साहित्य के परिचय बगैर अन्य कारणों से खड़ा है, यह कहने को कोई आधार नजर नहीं आता है। अब इस प्रजादल के मजबूत होने के लिए कुछ अंग्रेजी अधिकारियों की दोषपूर्ण हुकूमत जिम्मेदार है, यह अलग बात है।

पहले अंग्रेजी राज्य सुराज्य हो, ऐसा प्रजादल का उद्देश्य था। परंतु कालांतर में सुराज्य से स्वराज्य अच्छा है, प्रजादल को यह अच्छा लगने लगा। उद्देश्य में अंतर आ जाने पर प्रजादल दो भागों में बंट गया। एक पक्ष पूर्ण स्वराज्य मांगने लगा, तो दूसरा पक्ष इंग्लैंड के बगैर हमें सद्गति नहीं है, अतः अंग्रेजी साम्राज्य अंतर्गत हमें स्वराज्य मिलना चाहिए ऐसा कहने लगा। पूर्ण स्वराज्य की मांग करने वाला गरम दल बना, तो साम्राज्य अंतर्गत स्वराज्य मांगने वाला नरम दल हुआ। गरम दल ने पूर्ण स्वराज्य की प्राप्ति के लिए, सत्ता पलटने के लिए अनेक अराजक प्रयत्न किए। परंतु विफल होने के कारण अपनी राह बदल ली। देशहित की दृष्टि से उन्होंने एक राष्ट्रीय कार्य किया, इसे हम ऐसा ही समझते हैं। गरमपंथी व नरमपंथियों में जो विशेष जो अंतर शेष है, वह यह है कि गरमपंथियों के अनुसार यह देश स्वराज्य के योग्य है, अतः हमें पूर्ण स्वराज्य दिया जाए। वहीं नरमपंथियों की मांग है यह देश स्वराज्य के अयोग्य है, इसलिए स्वराज्य का एक-एक ग्रास धीरे-धीरे लिया जाए, जिससे कि वह पच सके। इस वैचारिक भिन्नता के कारण गरमपंथियों को मिले हुए स्वराज्य का वह हिस्सा एकदम बेकार तथा मानहानि किए जैसा लगता है, वहीं नरमपंथियों को स्वराज्य का वह हिस्सा संपूर्ण लगता है। इस पक्ष भेद में किसी ने हमसे पूछा कि इन दोनों में से आप किसके साथ हैं? तब हमारा उत्तर होगा कि हम किसी के साथ नहीं हैं।

जब तक अंग्रेज हैं, तब तक हम राजा हैं। हमारे पूर्वजों ने खून बहाकर इस देश को हासिल किया है। वह इसीलिए किया गया है कि उनके वंशज देश में चैन से रहें। ‘राजनीति में हमारा कल्याण’ यह प्रथम उद्देश्य है। यदि संभव हुआ, तो हिंदुस्तान का भी कल्याण करना है। प्रजादल के विरोध में हमारा राजमत है। जब तक गरमदल तथा नरमदल था, तब तक इस पक्ष भेद को कोई अर्थ था। स्वराज्य जब तक नहीं मिलता, तब तक यह प्रश्न था। अब जल्दी मांगो या धीरे से मांगो, यह बात प्रश्न को लेकर थी। परंतु अब स्वराज्य की मांग का कोई अर्थ नहीं है। अब मिला हुआ स्वराज्य किस सिद्धांत अनुसार क्रियान्वित किया जाए? यह मुख्य प्रश्न है। अब वस्तु स्थिति बदल चुकी है। फलतः गरमदल तथा नरमदल का पक्षभेद अर्थहीन लगने लगा है। स्वराज्य प्राप्त करने के लिए हमें स्वराज्य के लायक बनना होगा, ऐसा गरमदल तथा नरमदल इन दोनों दलों को लगता है।

परंतु हमारी योग्यता कैसे सिद्ध होगी? हमारे आंदोलन के समक्ष यही प्रश्न है। पूर्ण स्वराज्य हासिल करने का पक्का निर्णय हिंदुस्तान द्वारा किए बगैर हिंदुस्तान को पूर्ण स्वराज्य प्राप्त नहीं हो पाएगा। इस संदर्भ में इन दलों में क्या एकमत है? यह बात अमृतसर की राष्ट्रीय सभा तथा सोलापुर की प्रांतीय परिषद में पारित हुए स्वराज्य के प्रस्ताव से दिखाई देगी। इंग्लैंड की जनता को तथा पार्लमेंट को दृढ़ निश्चय संबंधी संकेत की जानकारी किस तरह से दी जाए? इसी बात को लेकर मतभेद है। गरमदल वालों की राय है कि अंग्रेज अधिकारियों के साथ सहयोग किया। तब उनका मत मान्य है, ऐसा समझकर इंग्लैंड के लोग तथा पार्लमेंट पूर्ण स्वराज्य का अधिकार प्रदान करने को कभी भी तैयार नहीं होंगी। इसके विपरीत नरमपथियों के मतानुसार अंग्रेजी साम्राज्य के साथ सहयोग करने पर पूर्ण स्वराज्य अतिशीघ्र प्राप्त होगा। नौकरशाही के साथ हठयोग तथा भक्तियोग करके स्वराज्य की प्राप्ति होती है। इतने बेअकल लोग नरमदल तथा गरमदल में भरे पड़े हैं। यह देखकर विद्वता के बल पर देश के नेता बनकर, शेखी मारने वाले इन विद्वानों की बुद्धि पर तरस आता है। हमारे मतानुसार नौकरशाही के साथ सहयोग करना अथवा न करना, यह स्वराज्य प्राप्ति का मार्ग नहीं है। जनता के साथ सहयोग करके प्राप्त स्वराज्य जनता के लिए जितने प्रमाण में सुखकारी किया जाएगा, उतने ही प्रमाण में स्वराज्य प्राप्ति की योग्यता निश्चित होगी, यह हमारा मत है।

“देश का राज्य कारोबार उसी देश के लोगों के हाथों में रहना, यह योग्य राज्य प्रणाली है तथा उसमें लोक उपयोगिता का समावेश रहता है। परंतु जिस देश का राज्य कारोबार दूसरे देश के लोग चलाते हैं, उस स्थिति को राज्य का नाम नहीं लिया जा सकता है। कारण एक देश के लोग दूसरे देश के लोगों को अपनी हुकूमत के नीचे रखते हैं। वे केवल अपने कल्याण के लिए, पैसा कमाने के लिए अथवा अपना फायदा करने के लिए उनका उपयोग आदमियों के झुंड के रूप में करते हैं”। प्रसिद्ध अंग्रेजी (राजकीय) विद्वान “मिल” के अनुसार नरमपंथी-गरमपंथी समय-बेसमय अज्ञानी जनों को स्वराज्य मांगने के लिए प्रोत्साहित करते रहते हैं। जिन अंग्रेजी राजनीतिज्ञों के इतिहास पर नरम व गरम दल वालों को बहुत विश्वास है, इसीलिए उसी इतिहास की बात सबके फायदे के लिए यहां बताना आवश्यक लगती है। जिस प्रकार हिंदुस्तान की राजकीय सत्ता ब्रिटिश लोगों के हाथों में है, उसी प्रकार आधी उन्नीसवीं सदी समाप्त होने तक, इंग्लैंड की राजकीय सत्ता हस्तगत करने के लिए इंग्लैंड में जो प्रजादल स्थापित किया गया था, उसमें भी व्हिग्ज़ व टोरीज़ नामक दो गुट थे। यह दोनों पक्ष राज्य की सत्ता सीमित करने हेतु प्रयत्नशील थे, यह बात इतिहास प्रसिद्ध है। फिर भी इन दोनों गुटों के संबंध में बहुजन समाज का क्या मत है? इसे अधिक कोई नहीं जानता है। यह बात जिन्हें पूरी तरह देखनी हो, उन्होंने प्रोफेसर ग्राहम वालेस द्वारा लिखे “फ्रांसिस प्लेस” के चरित्र का अध्ययन करना चाहिए। इंग्लैंड की राजनीति में हंगामा मचाने वाले इन दोनों गुटों के संबंध में प्लेस ने एक जगह कहा है, “बहुजन समाज के मतानुसार व्हिग्ज़ व टोरीज़, इन दोनों पक्षों के बीच किसी तरह का मतभेद नहीं है। किंतु भेद केवल इतना ही है कि टोरी दल को राजा की सत्ता मजबूत करके उसके जोर पर समाज के श्रेष्ठ व गरीब लोगों पर अपनी हुकूमत चाहिए, वहीं व्हिग्ज़ पक्ष को श्रेष्ठ लोगों की सत्ता स्थापित कर राजा व प्रजा को अपने पैरों तले रौंदना है।“

उपरोक्त मीमांसा गरमदल तथा नरमदल पर इतनी ही नहीं, तो इससे भी अधिक प्रमाण में लागू होती है। इसमें किसी बात का संदेह नहीं है। वजह यह है कि दोनों दल यद्यपि अंग्रेजी सत्ता को सीमित करने के लिए प्रयत्नशील हैं। फिर भी गरमपंथी श्रेष्ठ लोगों की सत्ता स्थापित करके गरीबों का हो रहा शोषण यथावत रखना चाहते हैं। इसीलिए स्वराज्य के उपयोग की दृष्टि से देखने पर दोनों गुट जितने बेकार हैं, जनहित की दृष्टि से उतने ही विघातक हैं। जिन्हें जनता हित संचित करना है, उन्हें ब्रिटिश सत्ता का भाव यानी स्वराज्य! स्वराज्य की यह व्याख्या उचित नहीं है। व्यक्ति की उन्नति के लिए अनुकूल सामाजिक स्थिति के निर्माण की स्वतंत्रता ही स्वराज्य की योग्य परिभाषा है। यह बात पिछले संपादकीय में कही गई है। यह व्याख्या फलीभूत होने के लिए, किस तत्व अनुसार समाज की रचना होनी चाहिए? इसका प्रतिपादन अगले संपादकीय में किया जाएगा। यह परिभाषा व सिद्धांत जिसको मान्य है, उनका व हमारा दल फिर एक ही है। इसे बताने की कोई जरूरत नहीं है।

From – Dr. Sunil Kumar

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