बुध्द का ब्राह्मणीकरण और ओशो रजनीश


बुद्ध का ब्राह्मणीकरण भारतीय बाबाओं योगियों गुरुओं का सबसे बड़ा और सबसे प्राचीन षड्यंत्र रहा है. इस संदर्भ में आधुनिक भारत में ओशो के द्वारा चलाये गये सबसे बड़े षड्यंत्र को गहराई से देखना समझना जरुरी है. एक सनातनी बुद्धि से संचालित ओशो का पूरा जीवनवृत्त बहुत विरोधाभासों और बहुत अस्पष्टताओं से भरा हुआ गुजरा है. कोई नहीं कह सकता कि उनकी मूल देशना क्या थी या उनके प्रवचनों में या उनके कर्तृत्व में उनका अपना क्या था.

खुद उन्ही के अनुसार उन्होंने लाखों किताबों का अध्ययन किया था फिर भी वे “आंखन देखि” ही कहते थे. जो लोग थोड़ा पढ़ते लिखते हैं वे एकदम पकड सकते हैं कि न सिर्फ चुटकुले और दृष्टांत बल्कि दार्शनिक मान्यताएं और तार्किक वक्तव्य भी सीधे सीधे दूसरों की किताबों से निकालकर इस्तेमाल करते थे. लाखों किताबें पढने का इतना फायदा तो उन्हें लेना ही चाहिए. इसमें किसी को कोई समस्या भी नहीं होनी चाहिए.

सनातनी मायाजाल के महारथी होने के नाते वे अपनी तार्किक, दार्शनिक, आधुनिक या शाश्वत स्थापनाओं के कैसे भी खेल रच लें, लेकिन तीन जहरीले सिद्धांतों को ओशो ने कभी नहीं नकारा है. भारत के दुर्भाग्य की त्रिमूर्ति – ‘आत्मा, परमात्मा और पुनर्जन्म’ को ओशो ने कभी नहीं नकारा है. इतना ही नहीं उन्होंने जिस भी महापुरुष या ग्रन्थ को उठाया उसी में इस जहर का पलीता लगा दिया. यहाँ तक कि बुद्ध जैसे वेद-विरोधी, आत्मा परमात्मा विरोधी और पुनर्जन्म विरोधी को भी ओशो ने पुनर्जन्म के पक्ष में खड़ा करके दिखाने का षड्यंत्र रचा है.

इस अर्थ में हम आदि शंकराचार्य और ओशो में एक गजब की समानता देखते हैं. अगर गौर से देखा जाए तो ओशो आधुनिक भारत के आदि शंकराचार्य हैं जो दूसरी बार बुद्ध का ब्राह्मणीकरण कर रहे हैं. इस बात को गहराई से समझना होगा ताकि भारत में दलितों और बहुजनों के लिए उभर रहे श्रमण बुद्ध को “ब्राह्मण बुद्ध” न बना लिया जाए. अभी तक बुद्ध की जितनी व्याख्याएं विपस्सना आचार्यों से या ध्यान योग सिखाने वालों के तरफ से आ रही है वह सब की सब बुद्ध को ब्राह्मणी सनातनी रहस्यवाद और अध्यात्म में रखकर दिखाती हैं.

जबकि हकीकत ये है कि बुद्ध इस पूरे खेल से बाहर हैं. बुद्ध तब हुए थे जबकि न तो गीता थी न ही कृष्ण या ज्ञात महाभारत या रामायण ही थी. ब्राह्मण शब्द उनके समय में था लेकिन ज्ञात ब्राह्मणवाद के उस समय प्रभावी होने का पक्का प्रमाण नहीं मिलता. अशोक के समय तक श्रमण और ब्राह्मण शब्द समान आदर के साथ प्रयुक्त होते हैं.

लेकिन बाद की सदियों में बहुत कुछ हो रहा है जिसने वर्णाश्रम जैसी काल्पनिक और अव्यवहारिक व्यवस्था को भारतीय जनमानस में गहरे बैठा दिया और संस्कार, शुचिता अनुशासन और धार्मिकता सहित नैतिकता की परिभाषा को सनातनी रंग में रंगकर ऐसा कलुषित किया है कि आज तक वह रंग नहीं छूटा है. वह रंग छूटने की संभावना या भय निर्मित होते ही ओशो जैसे बाजीगर प्रगट होते हैं और आधुनिकता के देशज या पाश्चात्य संस्करणों में सनातनी जहर का इंजेक्शन लगाकर चले जाते हैं.

कई विद्वानों ने स्थापित किया है कि श्रमणों, नाथों, सिद्धों, लोकायतों आदि की परंपराओं में एक ख़ास तरह की आधुनिकता हमेशा से ज़िंदा रही है. यही आधुनिकता कबीर जैसे क्रांतिकारियों में परवान चढ़ती रही है और वे निर्गुण की या वर्णाश्रम विरोध की चमक में लिपटी एक ख़ास किस्म की आधुनिकता का बीज बोते रहे हैं.

इसी दौर में गुलाम भारत बहुत तरह के राजनीतिक, सामरिक और दार्शनिक अखाड़ों का केंद्र बनता है और हमारी अपनी पिछड़ी जातियों, दलितों, बनियों से या रहीम, खुसरो आदि मुसलमानों की तरफ से आने वाली नयी प्रस्तावनाओं से जितना प्रभाव होना चाहिए थी उतना हो नहीं पाता है. फिर उपनिवेशी शासन ने जिस तरह के षड्यंत्रों को रचा है उसमे भी भारतीय समाज के क्रमविकास की कई कड़ियाँ लुप्त हो गयी हैं.

इन लुप्त कड़ियों को खोजने की बहुत कोशिश डॉ. अंबेडकर ने की है अंबेडकर ने धार्मिक, दार्शनिक और पौराणिक ग्रंथों के विश्लेष्ण पर बहुत पर जोर दिया है. उन शास्त्रों से निकलने वाले संदेशों और आज्ञाओं के आधार पर वर्ण और जाति व्यवस्था किस तरह आकार ले रही है इसका उन्होंने गहरा विश्लेषण दिया है. आजकल के मार्क्सवादी उन पर आरोप लगाते हैं कि अंबेडकर ने जाति की उत्पति के भौतिक या आर्थिक कारणों पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया है.

यह आरोप ऊपर से कुछ सही लगता है लेकिन वास्तव में निराधार है. अंबेडकर अपनी अकादमिक ट्रेनिंग से सर्वप्रथम अर्थशास्त्री ही हैं और जब मार्क्स के विचारों से रशिया और यूरोप में क्रान्ति हो चुकी थी तब समकालीन जगत में मार्क्स को उन्होंने ना जाना हो ऐसा हो ही नहीं सकता. उन्होंने मार्क्स या मार्क्सवाद को कई सारे स्त्रोतों से पढ़ा होगा और उसकी निस्सारता को जानते हुए और भारत में जाति के प्रश्न पर उसकी अव्यावहारिकता को देखते हुए खुद अपना अलग मार्ग निर्मित करने का निर्णय लिया.

डॉ. अंबेडकर जाति और वर्ण के प्रश्न को जिस तरह समझते समझाते हैं वह भारत में धार्मिक, दार्शनिक प्रस्तावनाओं के षड्यंत्रों के विश्लेषण से होकर गुजरता है. यह माना जा सकता है कि जाति के या वर्णों के उद्गम में भौतिक और आर्थिक कारण रहे हैं, व्यापार राजनीति और उत्पादन की प्रणालियों ने जातियों की रचना की है.

इसे अवश्य स्वीकार करना चाहिए, लेकिन इसी तक सीमित रहना घातक है. इस तथ्य तक सीमित रहकर हम ओशो जैसे लोगों के षड्यंत्रों को बेनकाब नहीं कर सकते. अगर हम मार्क्स की भौतिकवादी या आर्थिक प्रस्तावनाओं को मानकर चलेंगे और अंबेडकर के धर्म दार्शनिक विमर्श में प्रवेश नहीं करेंगे तो हम भारत को बार बार गुलाम बनाने वाले ओशो जैसे सनातनी षड्यंत्रकारों से नही बचा पायेंगे.

मार्क्स जिस मुक्ति कि इबारत लिख रहे हैं वह भारत में ओशो जैसे पंडितों के हाथों बर्बाद की जाती रही है. इसीलिये एक सनातनी दुर्भाग्य में पलते भारत को वैश्विक क्रान्ति या वैश्विक समता के आदर्श की तरफ जाने के मार्ग में अंबेडकर एक अनिवार्य चरण बन जाते हैं. न सिर्फ भारत के विश्व तक जाने के लिए बल्कि विश्व के भारत में आने के लिए भी अंबेडकर ही अनिवार्य प्रवेशद्वार हैं.

इस अर्थ में अंबेडकर के धर्म दार्शनिक विमर्श की नजर से हमें ओशो जैसे ब्राह्मणवादियों से बचना होगा. अंबेडकर की प्रस्तावनाओं में धर्म दर्शन और कर्मकांड की पोल खोलने पर जो जोर है उसका एक विशेष करण है. जाति भले ही आर्थिक कारणों से अस्तित्व में आयी हो लेकिन जाति को एक संस्था के रूप में हजारों साल चलाये रखने का जो उपाय भारतीय ब्राह्मणों ने किया था वह एक ऐसी भयानक सच्चाई है जिसे आर्थिक तर्क से नहीं तोड़ा जा सकता.

जाति को स्थायित्व देने के लिए विवाह को नियंत्रित किया गया है. जाति के बाहर विवाह जको वर्जित करने से जाति अमर हो गयी है और यह अमरत्व आर्थिक आधार पर नहीं बल्कि धार्मिक, तात्विक, आध्यात्मिक और दार्शनिक आधारों पर वैध ठहराया गया है.

इस बात को मार्क्सवादियों को ध्यान से समझना चाहिए. एक दलित या शुद्र अगर आर्थिक आधार पर निर्मित जाति से लड़ने जाता है तो उसका सामना सीधे उत्पादन या वितरण की बारीकियों से नहीं होता, उसका सामना विवाह और गोत्र से होता है. इसीलिये अंबेडकर की इस अंतर्दृष्टि में बहुत सच्चाई मालुम होती है कि विवाह नामक संस्था को जिन आधारों पर मजबूत बनाया गया है उन आधारों को ही धवस्त करना होगा. वे आधार धार्मिक हैं, दार्शनिक हैं.

इसीलिये एक अर्थशास्त्री होने के बावजूद अंबेडकर भारत में जाति के प्रश्न को सुलझाते हुए समाजशास्त्री, मानवशास्त्री और धर्म दर्शन के विशेषज्ञ की मुद्रा में आ जाते हैं. इस तथ्य के बहुत बड़े निहितार्थ हैं जो हमें भारत में जाति और विवाह नियंत्रण के षड्यंत्रों को निरंतरता देने वाले उस धार्मिक दार्शनिक दुर्ग को तोड़कर उखाड़ फेंकने की सलाह देता है.

अंबेडकर की इस सलाह के साथ अब ओशो जैसे सनातनी षड्यंत्रकारियों को रखकर देखना ही होगा. स्वयं अंबेडकर ने अपने अंतिम वर्षों में जिस बुद्ध को खोजा था उस बुद्ध की सबसे आकर्षक और सबसे खतरनाक व्याख्या लेकर ओशो और उनके परलोकवादी, ब्राह्मणवादी सन्यासी समाज में घूम रहे हैं और बुद्ध के मुंह में शंकाराचार्य की वाणी को प्रक्षेपित कर रहे हैं. यही ओशो का जीवन भर का काम था.

आधुनिक भारत में राहुल सांकृत्यायन, थियोसोफी, आनन्द कौसल्यायन, अंबेडकर और जिद्दू कृष्णमूर्ति ने जिस तरह के बौद्ध दर्शन और अनुशासन की नींव रखी उससे बड़ा भय पैदा हो गया था कि भारत में बुद्ध अपने मूल “श्रमण” दर्शन के साथ लौट रहे हैं।

पश्चिम में भी इसी दौर में यूरोप अमेरिका में बुद्ध की धूम मची हुई थी। दो विश्वयुद्धों और शीतयुध्द की अनिश्चितता के भय के बीच पूरा पश्चिम एक नास्तिक लेकिन तर्कप्रधान नैतिक धर्म की खोज कर रहा था। इस दौर में हिप्पी और बीटल्स और कई अन्य तरह के युवकों के समूह पूर्वी धर्मों का स्वाद चखते हुए सूफी, झेन, तंत्र, भांग, नशे और सेक्स के दीवाने होकर दुनिया भर में कुछ खोज रहे थे।

इसी समय झेन को डी टी सुजुकी और एलेन वाट्स ने पश्चिम में पहुंचा दिया था, थियोसोफी और जर्मन एंथ्रोपोसोफी सहित रुडोल्फ स्टीनर आदि ने जिस तरह से यूरोप में एक नई धार्मिकता की बात रखी उसमे “श्रमण बुद्ध” अधिकाधिक निखरकर सामने आते गये। इसी दौर में तिब्बत से निष्कासित कई लामाओं ने पश्चिम में शरण लेते हुए बुद्ध के सन्देश को एक अलग ढंग से रखना शुरू किया था.

ऐसे दौर में भारतीय पोंगा पंडित, योगी, ज्योतिषी, कथाकार आदि जब भी यूरोप अमेरिका जाते थे तब तब उनका सामना पश्चिम से उभर रहे बुद्ध से होता था। और जब वे भारत में होते थे तब उन्हें अंबेडकर और कृष्णमूर्ति द्वारा विकसित बुद्ध से टकराना पड़ता था। इस तरह ये पोंगा पंडित दोनों तरफ से भयाक्रांत होकर बुद्ध को फिर से आदि शंकर की शैली में ठिकाने लगाने का षड्यंत्र रचने लगे।

इस सबके ठीक पहले जिद्दू कृष्णमूर्ति को बुद्ध का अवतार घोषित किया जाता है लेकिन जिद्दू कृष्णमूर्ति ईमानदार और साफ़ दिल के इंसान थे। वे इस षड्यंत्र से अलग हो जाते हैं। लेकिन ओशो इस खेल में अकेले कूदते हुए षड्यंत्र की अपनी नई इबारत लिखते हैं और भारत में वेदांत और पश्चिम में क्रान्ति सिखाते हुए पश्चिम और पूर्व दोनों से उभर रहे बुद्ध में आत्मा परमात्मा और पुनर्जन्म का प्रक्षेपण करते हैं। अंत में ओशो ने यह भी कहा है कि बुद्ध की आत्मा ओशो के शरीर में आई और अंतिम सन्देश देना चाहा।

ओशो ने अपने शरीर में बुद्ध के प्रवेश करने की घटना का बड़ा नाटकीय वर्णन किया है और अपनी वाक चातुरी कि बेमिसाल प्रस्तुति देते हुए बुद्ध कि महिमा को स्वीकार करते हुए भी खुद को बुद्ध से सुपीरियर और समकालीन विश्व का एकमात्र तारणहार सिद्ध किया है. अपने वर्णन में ओशो बार बार बताते हैं कि बुद्ध स्वयं ओशो के शरीर में आना चाहते हैं लेकिन ओशो कह रहे हैं कि आप पुराने हो गये हैं, नए जगत का आपको अंदाजा नहीं है.

ओशो कहते हैं कि उन्होंने बुद्ध की आत्मा को अपने शरीर में इस शर्त पर स्थान दिया है कि अगर ओशो और बुद्ध में कोई विवाद हुआ तो बुद्ध को अपना बोरिया बिस्तर बांधकर निकल जाना होगा, इस बात को गौतम बुद्ध तुरंत समझ गए और ओशो की शर्तों के अधीन उनके शरीर से सन्देश देने को तैयार हो गये. इस बात को कहते ही ओशो अपनी चतुराई का दुसरा तीर छोड़ते हैं, कहते हैं कि बुद्ध ओशो की इस सलाह को इसलिए समझ सके क्योंकि बुद्ध की प्रज्ञा अभी भी खरी की खरी बनी हुई है.

अब यहाँ ओशो की बाजीगरी का खेल देखिये, दो पंक्तियों पहले कह रहे हैं कि बुद्ध पुराने और आउट डेटेड हो गये हैं और उसके तुरंत बाद अपना ‘सहयोगी’ सिद्ध करने के बाद उनकी प्रज्ञा को जस का तस बता रहे हैं. ये भारतीय वेदान्तिक ब्राह्मणवाद के षड्यंत्र का अद्भुत नमूना है. ये वर्णन ओशो ने 28 जनवरी 1988 को किया है और अपना नाम भगवान् से बदलकर “मैत्रेय बुद्ध” रख लिया.

इसके बाद के कुछ प्रवचनों में ओशो के शिष्य ओशो को बुद्ध के नाम से संबोधित कर रहे हैं. इसके बाद बहुत चालाकी से दो दिन बाद 30 जनवरी को ओशो ने घोषणा की कि गौतम बुद्ध अपने पुराने तौर तरीकों से चलना चाहते हैं और इसलिए उन्होंने बुद्ध का बोरिया बिस्तर बांधकर विदा कर दिया है.

ओशो ने इतने बचकाने ढंग से बुद्ध को अपमानित किया है कि आश्चर्य होता है. ओशो कहते हैं कि मेरे शरीर में आने के बाद बुद्ध एक ही करवट सोने का आग्रह करते हैं, तकिया नहीं लेना चाहते, आते ही पूछते हैं मेरा भिक्षापात्र कहाँ है? बुद्ध खुद दिन में एक बार खाते थे या नहाते थे इसलिए ओशो से यही करवाना चाहते थे लेकिन ओशो ने मना कर दिया.

ओशो कहते हैं कि इस तरह चार दिनों में ही बुद्ध ने ओशो के सर में दर्द पैदा कर दिया और ओशो को बुद्ध से ये कहना पड़ा कि आप अब जाइए. बुद्ध ने आश्चर्य व्यक्ति किया तो ओशो ने एक मास्टर स्ट्रोक मारा और कहा “आपका दिया हुआ वचन पूरा हुआ, ढाई हजार साल बाद मैत्रेय की तरह लौटने का आपका वचन पूरा हुआ, चार दिन क्या कम होते हैं?”

ये ओशो का ढंग है बुद्ध से बात करने का. इस काल्पनिक घटनाक्रम में भी ओशो बुद्ध को जिस गंदे और बचकाने ढंग से पेश कर रहे हैं वह बहुत कुछ बतलाता है. इस बात का आज तक ठीक से विश्लेषण नहीं हुआ है.

लेकिन भारत के दलितों, स्त्रीयों, गरीबों और मुक्तिकामियों को इस षड्यंत्र का पता होना ही चाहिए वरना अंबेडकर और कृष्णमूर्ति की मेहनत से जो बुद्ध और बौद्ध अनुशासन दलितों बहुजनों के पक्ष में उभर रहा है वह बुद्ध ओशो द्वारा प्रचारित ब्राह्मणवादी बुद्ध के आवरण में छिपकर बर्बाद हो सकते हैं और फिर से आत्मा परमात्मा और पुनर्जन्म की जहरीली दलदल में भारत का बहुजन कैद हो सकता है.

ओशो की चालबाजी को इस घटनाकृम में समझिये. आदिशंकर के बाद वे बुद्ध को सनातनी पंडित बनाने की दूसरी सबसे बड़ी कोशिश कर रहे हैं. लेकिन वे इतिहास को जानते हैं और पश्चिमी तर्कबुद्धि से उठने वाले प्रश्नों को भी समझते हैं इसलिए वे बुद्ध को विष्णु का अवतार नहीं कहते बल्कि खुद को ही बुद्ध का अवतार बना रहे हैं. ये आदि शंकर की चाल से बड़ी चाल है.

आज के जमाने में विष्णु के मिथक को फिर से खड़ा करना कठिन है. लेकिन पुनर्जन्म के सिद्धांत से एक पगडण्डी निकलती है जिसके सहारे ऐसा प्रचारित किया जा सकता है कि बुद्ध ही ओशो के शरीर से ज्ञान बाँट रहे हैं.

इससे दोहरा काम हो जाता है, एक तो ये कि ओशो ने जो भी ऊल जलूल जिन्दगी भर बोला है उसे वैधता मिल जाती है और दुसरा ये कि बुद्ध का प्रमाणिक व्याख्याकार बने रहते हुए वे बुद्ध और बौद्ध परम्परा की दिशा तय करने का अधिकार अपने हाथ में ले लेते हैं. हालाँकि वे एक गुलाटी और लगाते हैं और चार दिन के सरदर्द के बाद बुद्ध को बाहर कारस्ता दिखाने का दावा करते हैं.

इस तरह वे गौतम बुद्ध को पुरातनपंथी सिद्ध करके अपने आपको बुद्ध से भी बड़ा और “अपडेटेड बुद्ध” घोषित करते हैं और अपना नाम मैत्रेय बुद्ध से बदलकर अंत में ओशो रख लेते हैं. इसके ठीक बाद झेन पर बोलते हुए ओशो जिद्दु कृष्णमूर्ति का मजाक उड़ाते हैं और अपनी इस अंतिम किताब “द झेन मेनिफेस्टो” में आत्मा परमात्मा पुनर्जन्म को अंतिम सत्य बताते हुए दुनिया से विदा होते हैं.

ये नाम बदलकर या किसी को किसी का अवतार घोषित करके षड्यंत्र खेलना भारतीय पंडितों की सबसे कारगर तरकीब रही है. अब यही तरकीब ओशो के शिष्य खेल रहे हैं. हरियाणा में सोनीपत में एक ओशो आश्रम है जिसमे मुख्य गुरु ने यह दावा किया है कि ओशो मरते ही सूक्ष्म शरीर से उनके पास उपस्थित हुए और उन्हें उत्तराधिकारी बनाकर चले गये.

अब ओशो के ये उत्तराधिकारी चौरासी दिन में चौरासी लाख योनियों से शर्तिया मुक्ति दिलवाते हैं. ओशो ने जहर का जो पेड़ लगाया था उसमे शाखाएं और धाराएं निकल रही हैं. देखते जाइए ये सनातनी लीला हमारे सामने चल रही है.

इसलिए अब यह बहुत जरुरी होता जा रहा है कि मार्क्स को पढने समझने वाले लोग अंबेडकर को भी गहराई से पढ़ें समझें और अंबेडकरवादी लोग भी मार्क्स को गहराई से पढ़ें समझें. तभी हम भारत में सनातनी षड्यंत्रों से बच सकते हैं.

अंबेडकर भारत से शेष विश्व में जाने का और शेष विश्व के भारत में आने का अनिवार्य पडाव हैं. उन्हें इसी रूप में देखना होगा, तभी हम वैश्विक क्रांतियों की प्रस्तावनाओं से भारतीय बहुजनों दलितों आदिवासियों और स्त्रीयों के हित का कुछ ‘करणीय’ खोज पायेंगे.

अगर हम अंबेडकर को नहीं समझते हैं तो या तो हम वैश्विक क्रान्ति की प्रस्तावनाओं में एक पुर्जे की तरह इस्तेमाल हो जायेंगे या फिर सनातनी अवतारवाद और पुनर्जन्म के कोल्हू में इसी तरह घूमते रहेंगे.

Author – Sanjay Shraman Jothe

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2 Comments

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  1. 1
    Niranjna Suman

    सबसे पहले लेखक को अनेक साधुवाद। इस आलेख से आपने मेरे अंदर के अनेक सवालों के जवाब दे दिए। मैं जब भी ओशो को सुनती या पढती तो मुझे अच्छा तो बहुत लगता था लेकिन वो कुछ सवाल जरूर छोड़ता था, इस लेख से उनके उत्तर की तरफ जो इशारा किया गया है, उससे मुझे समझने में मदद मिलेगी। आपने मुझे उस दिशा में जाने से बचा लिया जहां तरफ तथागत और बाबा साहेब जाने से मना करते हैं। ढेर सारी शुभकामनाएं और धन्यवाद।

  2. 2
    Parminder Kaur

    लेखक ने लगता है ओशो को बिना सुने पढ़े ये लेख लिख डाला है।
    वे हमेशा ‘मैंने सुना है’ करके शरुवात करते थे।
    मुझे बचपन से ही spiritual गुरु को सुनने की सनक रही है और बहुतों को सुना और ओशो जैसा बेबाक नहीं देखा जो ब्राह्मणवाद पर इतना खुल कर बोले।
    जो अपने तर्क और बेबाकी के लिए जाने जाते थे, मैं तो ये जानना चाहती हूं ओशो को बहुजन समाज ने क्यों नहीं समझा, पाखंडी गुरुओ की शरण तो जग जाहिर है।
    बाबा साहेब जी ने जो scientific approach के साथ ब्राह्मणवाद की बघियां उधेड़ी हैं, उसी को बोल चाल की भाषा मे ओशो ने बोला है।
    मैं इस लेख से सहमत नहीं हूं, आप चाहे तो इस बात पर तर्क किया जा सकता है।

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