एक शादी – दो विचारधाराओं का संघर्ष


एक बहुत ही साधारण सी शादी में हम सम्मिलित हुए | हमारे मित्र की शादी थी, मित्र एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं | इसलिए जब से उनकी शादी तय हुई थी तो हमारे बीच लगातार विचार विमर्श जारी था | हमारा मानना था कि शादी कम खर्चिली और मनुवादी रिति रिवाजों के बिना सम्पन्न होनी चाहिए क्योंकि मनुवादी रिति रिवाज गैर बराबरी पर आधारित, महिला को कमजोर और समाज में निचले दर्जे पर होने का बोध करवाते हैं | तो हम सब विचार विमर्श के बाद इस नतीजे पर पहुंचे कि शादी की रस्म समानता पर आधारित प्रतिज्ञाओं और वचनों से सम्पन्न हो, जो दोनों तरफ से ली जाएं | अंततः यह शादी इस कोरोना संकट के बीच बड़ी आसानी से सम्पन्न हो गई| इस शादी में सिर्फ दस लोग ही शामिल हुए, पांच लड़के की तरफ से और पांच लड़की की तरफ से, फिजिकल डिस्टेंसिंग का पालन करते हुए |रिति रिवाज की जगह यहाँ पर संत रविदास, संत कबीर साहिब और बाबा साहिब अम्बेडकर की फोटो के सामने बैठकर दोनों नवयुवकों ने वर – माला पहनाईं और संतों महापुरुषों की विचारों को साक्षी मानते हुए एक दूसरे को जीवन साथी स्वीकार कर लिया | यहाँ पर तथागत गौतम बुद्ध, संत रविदास, संत कबीर साहिब के विचारों पर, तर्कशीलता एवं समानता पर तथा मनुवादी गैर- बराबरी वाले रिति रिवाजों पर भी अच्छी तरह विचार विमर्श हुआ | और अंततः इस तरह यह शादी सम्पन्न हुई |

शादी का एक संस्था के रूप अवतार लेना

महिला और पुरुष का आपसी संबंध बेहद ही प्राकृतिक और साधारण सा एक संबंध है | परन्तु , शादी जैसी संस्था के अस्तित्व में आने के बाद , यह साधारण सा संबंध एक असमान रिश्ते में बदल गया | शादी को ऐतिहासिक तौर पर देखने से पता चलता है कि कैसे औरत को गुलाम बनाने के लिए ही इस संस्था का निर्माण किया गया |औरतों को पढ़ने -लिखने से , सम्पत्ति के अधिकार से वंचित कर दिया गया | किसी भी तरह के पारिवारिक, आर्थिक तथा सामाजिक फैसलों में औरतों की राय की जरूरत नहीं समझी जाने लगी | यहाँ तक कि औरतों को अपने आप के विषय में फैसला लेने के अधिकार से भी वंचित कर दिया गया | इस तरह औरत एक वस्तु के रूप में रूपांतरित हो गई और सिर्फ बच्चे पैदा करने की मशीन बन गई |

महिलाओं से संबंधित समाज में व्याप्त कुरितियां

इस तरह की आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक पृष्ठभूमि ने समाज में कई तरह की कुरितियों को भी जन्म दिया | बाल विवाह, सती -प्रथा, विधवा जीवन इत्यादि ने तो महिलाओं के जीवन को नर्क बना दिया | विधवा का जीवन तो किसी कठोर सजा से कम नहीं था | सजा भी ऐसी जो जीवन भर समाप्त न हो और सजा भी ऐसे कृत्य की, जो महिलाओं ने किया ही नहीं|धर्म ने इन सब कुरितियों को जायज ठहराया और इसे गौरवान्वित किया और जिन लोगों ने इन कुरितियों के खिलाफ आवाज बुलंद की, उन्हें धर्मद्रोही एवं समाजद्रोही कहा गया |औरतों को तो धर्म ने दोयम दर्जे का नागरिक तक बना दिया | मंदिर की पुजारी औरत नहीं हो सकती,कई सारी जगहों पर पूजा करने नहीं जा सकतीं ,यहाँ तक की मासिक धर्म में तो औरतों को अपवित्र घोषित कर दिया गया (उच्च जातीय महिलाओं की बात कर रहे हैं,दलित समुदाय तो मंदिर से कोसों दूर रहा है)| सबरीमाला मंदिर, शनि शिंगणापुर हो या हाजी अली की दरगाह हो, यह सब तो हाल की ही घटनाऐं हैं जो साफ साफ दिखाती हैं कि औरतों के साथ समाज में पुरुषों से अलग तरह का व्यवहार आज भी किया जा रहा है | आज के समय में भी औरतों को समान अधिकार प्राप्त नहीं हैं | परन्तु , विडम्बना यह है कि हमारे समाज का काफी बड़ा हिस्सा अब भी इस तरह के भेदभाव को सही ठहराता है |

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धार्मिक-सामाजिक सुधार आंदोलन और महिलाएँ

कई सदियों से महिलाएँ इस नर्क को भोगती आई हैं और भोग रही हैं| परन्तु, जब भारत में भक्ति आंदोलन की शुरुआत हुई तो महिलाओं की स्थितियों पर भी बात की जाने लगी |लेकिन महिलाओं की स्थिति में सुधार लाने के लिए जो समाज सुधार आंदोलन शुरू हुए , इनकी शुरुआत उपनिवेशिक शासन के दौरान ही हुई थी| जैसे राजा राम मोहन राॅय ने सतीप्रथा का विरोध किया और सन् 1829 में सतीप्रथा के विरुद्ध कानून बनवाने में कामयाब रहे | ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने विधवा विवाह की वकालत की और 1856 में विधवा विवाह के समर्थन में कानून बनवाने में भी कामयाब रहे| पंडित रमाबाई ने इसी दौरान लड़कियों के लिए स्कूल खोले और कन्याएं वहाँ पर पढ़ने भी आने लगी |परन्तु, यह सब आंदोलन उच्च जातीय हिन्दू समाज सुधारकों द्वारा ही चलाए गए और उच्च जातीय हिन्दू समाज तक ही सिमित रहे | दूसरी इस शिक्षा – दिक्षा में महिलाओं को यही सिखाया जाता था कि घर- गृहस्थी को अच्छी तरह से चला सकें और बच्चों की अच्छी तरह परवरिश कर सकें| महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार और अवसर दिलाने की बात यहाँ तक नहीं की जा रही थी| परन्तु, ज्योति राव फुले और सावित्री बाई फुले ने सम्पूर्ण आंदोलन की दिशा ही बदल दी |महान क्रांतिकारी ज्योति राव फुले जी ने,हिन्दू धार्मिक साहित्य के विरुद्ध जाते हुए अपनी पत्नी सावित्रीबाई फुले को पढ़ाया | जब सावित्रीबाई फुले पढ़ना लिखना सीख गईं तो दोनों ने मिलकर सन् 1848 में महाराष्ट्र, पुणे में लड़कियों के लिए स्कूल खोला| फुले दम्पति ने लिंग भेद तथा जाति धर्म का भेद न करते हुए, समान शिक्षा प्रणाली की स्थापना की और महिलाओं के लिए भी समाज में समान अवसर उपलब्ध कराए जाने की वकालत की|तमाम रूढ़ियों की परवाह न करते हुए विधवा विवाह की वकालत की तथा विधवाओं को शोषण से मुक्ति दिलाने के लिए अनेक प्रयास किए | कई सारी विधवाएं अपने रिश्तेदारों तथा सगे संबंधियों से शारीरिक शोषण का शिकार होकर गर्ववती हो जाती थी| तो यह विधवा महिलाएं या तो आत्महत्या कर लेती थी या जन्म लेते ही बच्चे को मार देती थी | इस समस्या को हल करने के लिए, फुले दम्पति ने सन् 1856 बाल हत्या प्रतिबंधक गृह की स्थापना की यहाँ विधवा महिलाएं बच्चों को जन्म देती थी तथा बच्चों का पालन पोषण करती थीं| ऐसी ही एक विधवा महिला के पुत्र को फुले दम्पति ने गोद लिया तथा अपने उसी दत्तक पुत्र की अंतर्जातीय शादी भी करवाई| अपने दत्तक पुत्र का नाम फुले दम्पति ने यशवंत राव रखा, जो बाद में पढ़ लिख कर डाॅक्टर बने| सन् 1873 में फुले दम्पति ने सत्य शोधक समाज नामक संस्था की स्थापना की और समता एवं समानता वाले विचारों के प्रचार प्रसार के लिए सांस्कृतिक काम भी किया| बिना पंडित तथा गैर बराबरी वाले मंत्रों के, समानता पर आधारित सत्य शोधक शादीयां भी करवाई | ज्योति राव फुले जी के निधन के बाद सत्य शोधक समाज का कार्यभार सावित्रीबाई फुले जी ने सम्भाला| और जब सन् 1897 में महाराष्ट्र में प्लेग फैला तो सावित्रीबाई फुले ने संक्रमित लोगों के बीच जा कर उनकी सेवा तथा खुद उठा -उठा कर मरीजों को अस्पताल लाया | ऐसी ही एक संक्रमित मरीज को लाते हुए, उन्हें भी संक्रमण हो गया और उनकी मृत्यु हो गई| इस तरह सावित्रीबाई फुले अपनी अंतिम सांस तक समाज में कार्य करती रहीं | धन्य था फुले दम्पति का जीवन तथा सामाजिक कार्य के प्रति संकल्प |

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बाबा साहिब अम्बेडकर और नारी मुक्ति आंदोलन

नारी मुक्ति आंदोलन में बाबा साहब अम्बेडकर का तो बहुत हीसराहनीय योगदान रहा है | आज भारत में संवैधानिक तौर पर जितने भी अधिकार महिलाओं को प्राप्त हैं यह सब बाबा साहब अम्बेडकर जीकी ही मेहनत का परिणाम हैं |बाबा साहब अम्बेडकर जी ने ज्योति राव फुले तथा सावित्रीबाई फुले के कार्यक्रम को ही आगे बढ़ाया, जो सबके लिए समान अधिकार तथा समान अवसर उपलब्ध कराए जाने की वकालत करते थे | बाबा साहब अम्बेडकर को बहुत से लोग अभी भी एक दलित नेता के रूप में ही देखते हैं| परन्तु बाबा साहब अम्बेडकर नारी मुक्ति आंदोलन के बहुत बड़े योद्धा थे| इसकी सबसे बड़ी मिसाल है हिन्दू कोड बिल, जो पूरी तरह पारित तो नहीं हो पाया, जैसे बाबा साहब अम्बेडकर चाहते थे और संसद में इस्तीफा देने के पिछे यह भी एक वजह थी| बाबा साहब अम्बेडकर, ज्योति राव फुले, सावित्रीबाई फुले, रामास्वामी पेरियार तथा बहुजन नायकों ने एक बात जो जोर देकर कही है वो यह है कि कानून आपको जो भी अधिकार दे दे, जब तक समाज उसको मान्यता नहीं देता , सब अधिकार कागज पर लिखे शब्द ही हैं | इसलिए उन्होंने साथ साथ समाज में जागरूकता लाने के लिए भी अथक प्रयास किए |

-प्रवीण कुमार अवर्ण
(सामाजिक कार्यकर्ता, जम्मू, जम्मू व कश्मीर)

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