यूपी की राजनीति और लोहिया-आंबेडकर


बीसवीं सदी के इन दो महान चिंतकों के विचारों का समावेश करके बन सकता है आधुनिक समाज और देश

–दिलीप मंडल

बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर और राममनोहर लोहिया ये दो नाम भारतीय राजनीति में कई मायने में एक सी तासीर रखते हैं. जीवनकाल में इन दिनों को सीमित राजनीतिक सफलताएं मिलीं. बाबा साहेब लोकसभा चुनाव कभी नहीं जीत पाए. लोहिया भी सिर्फ एक बार सांसद बन पाए. दोनों को सत्ता में होने का मौका या तो नहीं मिला या बेहद सीमित मौका मिला. दोनों ही दरअसल चिरंतन प्रतिपक्ष रहे. यह प्रतिपक्ष सिर्फ राजनीति में नहीं बल्कि भारतीय समाज के स्तर पर भी रहा.

ये दोनों नेता मरने के बाद और ज्यादा प्रासंगिक होते चले गए और आज भारतीय राजनीति की कोई भी चर्चा इनको केंद्र में रखे बिना नहीं हो सकती. जहां आंबेडकरवाद की सर्वव्यापी चर्चा है और उन्हें नए सिरे से पढ़ा और परखा जा रहा है, वहीं लोहियावादी धारा का खासकर उत्तर भारतीय राजनीति पर गहरा असर रहा है. लोहियावाद ने पिछड़ी और मझौली जातियों को सत्ता के केंद्र में लाकर भारतीय समाज और राजनीति को लोकतांत्रिक बनाया है. खुद को आंबेडकरवादी और लोहियावादी कहने वाली पार्टियों ने उत्तर भारत के दो बड़े राज्यों उत्तर प्रदेश औऱ बिहार की राजनीति पर या तो राज किया है, या प्रमुख विपक्ष की भूमिका निभाई है. कई और राज्यों में भी इनका असर है.

लोहिया और आंबेडकर के बारे में यह तथ्य दिलचस्प है कि दोनों का राजनीतिक जीवन लगभग एक साथ चला. लेकिन आश्चर्यजनक है कि भारत के ये दो प्रमुख नेता कभी आपस में मिल नहीं पाए. ऐसा नहीं है कि दोनों के बीच भौगोलिक दूरी थी. दरअसल उनके बीच साम्य की तलाश इतनी देर में शुरू हुई कि दोनों जब मिलना चाहते थे, तब उनमें से एक यानी बाबा साहब परिनिर्वाण की ओर बढ़ रहे थे. देर हो चुकी थी. 1956 में प्रस्तावित इन दोनों नेताओं की मुलाकात कभी हो नहीं पाई.

इस तरह लोहिया और आंबेडकर का साझा चिंतन, जो देश की राजनीति और समाज की तस्वीर बदलने में शायद सक्षम होता, कभी जमीन पर उतर ही नहीं पाया. सबसे दुखद यह है कि यह जोड़ी बनते-बनते तब बिखर गई, जब दोनों पास आने की ओर बढ़ रहे थे और दोनों के बीच संवाद शुरू हो चुका था.

बहरहाल इतिहास की अपनी गति होती है और मनोगत भावों से चीजें नहीं चलतीं. अगर समानताओं की बात करें तो लोहिया और आंबेडकर कई मुद्दों पर बेहद पास नजर आते हैं. दोनों के पास विश्वदृष्टि थी और भारतीय राष्ट्र के बारे में दोनों ने चिंतन किया है. लेकिन लोहिया और आंबेडकर दोनों की भारत में निम्नवर्णीय-निम्नवर्गीय प्रसंग में ही याद किए जाते हैं और यह गलत भी नहीं है.

ये दोनों नेता संपूर्ण राष्ट्र के लिए चिंतन करते हुए भारत की जाति मुक्ति को एक अनिवार्य कार्यभार की तरह लेते हैं और मानते हैं कि जाति के अंत के बिना भारत का विकास नहीं हो सकता. लोहिया अपनी किताब भारत में जातिवाद और आंबेडकर अपनी किताब एनिहिलेशन ऑफ कास्ट में यह व्याख्या देते हैं कि जन्म के आधार पर पेशों के निर्धारण ने भारतीय अर्थव्यवस्था को गतिहीन बना दिया है. दोनों की राय में जाति अनैतिक है और इसका अंत हो जाना चाहिए.

हालांकि आंबेडकर के चिंतन में वर्ग की तुलना में जाति ज्यादा महत्वपूर्ण तरीके से आती है, लेकिन बाबा साहेब भी संविधान सभा के अपने आखिरी भाषण में सामाजिक से साथ साथ आर्थिक असमानता को लोकतंत्र के लिए सबसे बड़े खतरे के तौर पर चिन्हित करते हैं. यहां पर बाबा साहेब और लोहिया साथ खड़े दिखते हैं. स्त्री मुक्ति के सवाल पर भी लोहिया और आंबेडकर काफी करीब हैं.

लोहिया और आंबेडकर की चिंतन प्रक्रिया पर विचार करते समय दोनों की पृष्ठभूमियों को ध्यान में रखना उपयोगी होगा. दोनों ही आधुनिक चिंतक हैं, दोनों की शिक्षा विदेशों में हुए, दोनों ही यूरोपीय और अमेरिकी चिंतकों के अध्येता रहे और दोनों ही भारत को आधुनिक राष्ट्र के तौर पर देखने के इच्छुक रहे. समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के विचारों से दोनों प्रभावित रहे. लेकिन जहां आंबेडकर जाति व्यवस्था में सबसे नीचे की पायदान से आने के कारण जाति को लेकर बेहद कटु हैं, और धर्मशास्त्रों को इसके लिए जवाबदेह मानकर उन्हें जला डालने की बात करते हैं.

वहीं लोहिया उत्तर भारतीय व्यवसायी जाति से आते हैं. वे जाति का अंत चाहते हैं लेकिन इसके लिए वे धर्म का विनाश नहीं चाहते. जाति मुक्ति का सवाल आंबेडकर के लिए सबसे महत्वपूर्ण है. भारत की आजादी से भी ज्यादा महत्वपूर्ण. वहीं लोहिया जाति मुक्ति को जरूरी मानते हुए भी स्वतंत्रता आंदोलन को ज्यादा महत्व देते हैं.

जहां आंबेडकर धर्म और शास्त्रों को जाति का आधार मानते हैं, वहीं लोहिया जाति को धर्म की बुराई मानते हैं. इस बिंदु पर लोहिया अपने गुरु महात्मा गांधी के साथ खड़े हैं. लोहिया निजी जीवन में नास्तिक हैं लेकिन राजनीतिक और सामाजिक तौर पर वे धर्मसुधारक हैं. बाबा साहेब नहीं मानते कि हिंदू कभी सुधर सकते हैं और जाति से मुक्ति पा सकते हैं, इसलिए वे 1936 में ही हिंदू धर्म छोड़ने की घोषणा करते हैं और 1956 में हिंदू धर्म त्याग कर विधिवत बौद्ध बन जाते हैं.

धर्म और जाति का अंतर्सबंध वह एकमात्र बिंदु है जहां लोहिया और आंबेडकर बिल्कुल अलग जगह खड़े नजर आते हैं. लेकिन दोनों के बीच समानताएं इतनी अधिक हैं कि दोनों को अलग अलग नहीं देखा जाना चाहिए. ऐसा करने वाले आंबेडकरवादियों और लोहियावादियों ने अपनी एकांगी सोच का ही परिचय दिया है और इसका नुकसान दोनों को हुआ है.

व्यवहारिक राजनीति के तौर पर देखें तो सपा और बसपा में 1995 के बाद से 2017 तक यानी 22 साल तक जो कड़वाहट रही, उसने भारतीय राजनीति में एक अभिनव प्रयोग की संभावना को नष्ट कर दिया. अगर खुद को लोहियावादी और आंबेडकरवादी कहने वाली दो पार्टियों में कामकाजी एकता होती, तो देश की राजनीति की शक्ल शायद कुछ और होती. जहां सपा पिछड़ी जातियों की पार्टी बन गई, वहीं बसपा अपने मूल आधार यानी दलित वोटों तक सिमट गई. दोनों का अपना आधार सत्ता तक पहुंचने के लिए काफी नहीं था, इसलिए दोनों दलों ने राजनीतिक और सामाजिक गठबंधन किए और अपने मूल विचार के साथ इतने समझौते किए कि इन दलों को पहचानना मुश्किल हो गया कि वे आंबेडकरवादी और लोहियावादी पार्टियां हैं. किसी ने बीजेपी से समझौता किया तो कोई सवर्णों को खुश करने के लिए प्रमोशन में आरक्षण का बिल फाड़ने में जुट गया. वर्ग के सवाल पर दोनों के पास कोई ठोस चिंतन नहीं है. वंचितों के पक्ष में खड़े होने का बुनियादी स्वभाव ये पार्टियां भूल गईं.

2018 में ये पार्टियां एक बार फिर पास आती दिख रही हैं. अगर यह सिर्फ सत्ता के लिए दो दलों का पास आना है, तो फिर इसकी मीमांसा करने का भी कोई मतलब नहीं है. अगर वे विचार के स्तर पर करीब आ रही हैं, तो जो सबसे पहला काम दोनों दलों के नेताओं को करना चाहिए वो यह कि लोहिया और आंबेडकर को पढ़ें और उससे भी ज्यादा उनके विचारों पर अमल करें. आंबेडकर और लोहिया के साझा विचारों में आधुनिक भारत का एक अभिनव सपना छिपा है.

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2 Comments

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  1. 2
    mukesh k rathod

    Gandhi ko guru manewale lohia ko Dr.baba saheb k saath compare karna Dr.babasaheb ka apamaan hai apamaan hai

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