शिक्षा संघर्ष और संघठन


पहली पंक्ति मे गलियारे के पास वाली कुर्सी पर बैठा हूं, सारी कुर्सियाँ भरी हैं. आईआईटी, एमबीबीएस, सीए, कमर्शियल पायलट, न्यायिक सेवा, आईएएस और भी न जाने कितनी ही परीक्षाओं मे परचम लहराने वाले दलित मित्र आए हैं. पोस्टर लगे हैं जिन पर लिखा है शिक्षित बनो, संघठित रहो, संघर्ष करो. कितना मनोरम दृश्य है, एक के बाद एक ओजस्वी भाषण दिये जा रहे हैं. पर पता नहीं मेरे हाथ उठ ही नहीं पा रहे हैं ताली बजाने को, सिर भी झुका जा रहा है. क्यों ? मंच से वक्ता, बाबा साहेब की उपलब्धियाँ गिनाते चले जाते हैं. ये उपलब्धियाँ तो उनकी हैं. हमने 1956, यानी बाबा साहेब जाने के बाद हमने क्या किया ? कितने कदम हम और चल सके ? कितने शिक्षित हुए, कितने संघठित हुए और कितना संघर्ष किया ? क्या हमारी उपलब्धियाँ रही बाबा साहेब के जाने के बाद ? मेरे पास जवाब नहीं है, दुखी हूँ . आप के पास जवाब है ? हमारे पास इन सवालों के जवाब नहीं हैं तो कितना जायज है चिल्ला – चिल्ला कर, तालीयां पीट पीट कर बाबा साहेब की 126 वीं जयंती मनाना ?

हमने क्या किया बाबासाहेब के जाने के बाद ?

हममे से कुछ पढते चले गए, व्यक्तिगत लक्ष्यों और मत्वाकांक्षाओ पर ध्यान दिया, बहुत कम ही लोग तो ऊँचे पदों तक जा सके थे. उन मे से कुछ किसी राजनैतिक पार्टीयों की चमचागिरी कर राजनीति मे आ गए. फिर क्या हुआ ? एक दो मुख्यमंत्री तक पहुचे, बाकी इधर उधर एमएलए, एमपी बन घर चले गए. कितने प्रधानमंत्री दिये दलितों ने ? एक भी नहीं. क्या इतनी आबादी में से एक भी लायक उम्मीदवार नहीं मिला ?

कुछ ने समाज की एकता के नाम पर महासंघों के पदों के मजे लिए. महासंघ क्या होते हैं, जानते भी थे ये लोग ? किसकी वजह से यह हो सका ? यही थी वह एकता, संघठन की ताकत जिस की बात बाबा साहेब ने की थी ? नहीं हम खुद को जात के बंधन से आजाद ही नहीं करना चाहते. इस वजह से हम कभी संघठित नहीं हो सके और बिना संघठन के संघर्ष  बेमतलब हो जाता है.

जिन पदों पर आरक्षण नहीं है जैसे उच्च न्यायालय, उच्च्तम न्यायालय, सीए और रक्षा क्षेत्र वहाँ क्या हालत है दलितों की ? सीए मे सारे सवर्ण भरे पडे हैं, बनियागिरी का ये काम उन ही के पास है आजभी. न्यायालयों मे सवर्ण ही भरे हैं, जज का बेटा वकील या जज बन जाता है. उच्चतम न्यायालय मे कितने मुख्य न्यायधीश बने इस समाज के, एक. कितने मेजर, कर्नल बनें बताओ ? हाँ सैनिकों से बहुत मिला हूं, बहुत हैं परिवार और गाँव मे. यह चेतना और ज्ञान की कमी का ही परिणाम है.

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राजनैतिक पहलू

आरक्षण पर सरकारों का अलग अलग मत है. ज्यादातर दलित काँग्रेस को वोट देते आए हैं. बीजेपी कभी भी आरक्षण की पक्षधर नहीं रही है. इस ही लिए आरक्षण को हमेशा के लिए दफ्न करने का तरीका निकाल लिया है जिसे वो निजीकरण कहते हैं. हालही मे एक रेलवे स्टेशन को निजी कर दिया गया है, राजस्थान मे तो जंगल ही निजी हाथों मे दिये जा रहे हैं. बैक लोग भर्तीयां नहीं भरी जा रही हैं, गेट परीक्षा मे ओबीसी कोटा खत्म, यूपी मे प्राइवेट मेडिकल कालेज पीजी एडमिशन मे एससी, एसटी व ओबीसी कोटा खत्म, यूपी न्यायिक परीक्षा 2016 मे एक भी एससी, एसटी छात्र पास नहीं किया गया. 40 मे से 39 सामान्य से हैं, एक ओबीसी से है. यह साजिश ही तो है धीरे धीरे आरक्षण खत्म करने की. वो हमे आगे लाना नहीं चाहते हम संघर्ष कर आगे आना नहीं चाहते. बीएसपी आरक्षण की समर्थक है पर वह यूपी के अलावा किसी अन्य राज्य में उतनी सक्रिय नहीं है.

राजेनैतिक चमचे आजकल आरक्षण पर ज्ञान बाँटते हुए पाए जाते हैं. अगर आरक्षण न होता तो क्या वे अफसर या राजनेता बन सकते थे, नहीं. हमे उनको उनके हाल पर छोड देना है, उन्हे वोट न दिया जाए. समय ही कितना लगेगा फिर उनका किस्सा खत्म होने में.

क्या होना चाहिए था ?

  • बजाय जातिगत संघ बनाने के हमको सुनिश्चित करना चाहिए था की हर बच्चे को शिक्षा मिले, उनको पहले ही पता होना चाहिए था की उनका मुकाबला किन लोगों से पड़ने वाला है. हम उनको बहतर मार्गदर्शन दे सकते थे.
  • हम गांव गांव मे पुस्तकालय खोल सकते थे, जहाँ कोई भी कभी भी जा कर पढ सके. मैने बाबा साहेब के बारे मे सिर्फ एक बात पढी वह थी ” भीम राव अम्बेड़कर संविधान सभा की प्रारूप समिती के अध्यक्ष थे.” क्यों हमे उनके बारे मे ज्यादा नहीं पढाया जाता ? गुजरात मे बीजेपी सरकार ने बकायदा इस बात के जवाब मे कहा है की ऐसा करने से बच्चों के दिमाग पर बुरा असर पडता है. मै इसे समझ सकता हूँ, बालक उन्हे पढने के बाद किसी का भी गुलाम रह ही नहीं सकता. पर सरकारें यही चाहेगी पर हम बच्चों को दलित नायकों और दलित साहित्य के बारे मे बता सकते थे. पर हम ने यह भी नहीं किया.
  • महिला शिक्षा पर हम ने क्या किया ? बिना महिलाओं को शिक्षित किए हम दलित समाज को शिक्षित कर सकते हैं, नहीं. तो क्यों आज भी महिला साक्षरता दर कम है. हम सरकारों के भरोसे ही रहते आए हैं.
  • जो लोग आगे बढ गए क्या उनका फर्ज नहीं की वो आरक्षण का खुल कर समर्थन करें तथा अपने भाईयों और बहनो की आगे बढने मे सहायता करे ? हम या तो अपनी पारिवारिक जिम्मेदारीयों मे व्यस्त हो जाते हैं या चमचे बन जाते हैं. खुदगर्ज हैं हम. अगर बाबा साहेब भी यही करते तब ?
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आखिर मे

हजरों साल पुरानी गुलामी की बेडीयां तोड हमे आजाद करने वाले बाबा साहेब ने पूरी मनुवादी व्यवस्था को घुटनो पर ला दिया ओर एक हम हैं जो इतने हो कर भी  कुछ नही कर रहे, धिक्कार है जो हम वो आजादी न बचा सकें. फिर से गुलाम बना लेने की तैयारी चल रही है. हमारी राजनैतिक व सामाजिक उदासीनता हमारी सामूहिक खुदखुशी बने उससे पहले जागने की जरूरत है.

सोचते सोचते कहाँ आ निकला हूँ, प्रतिभावान छात्र छात्राएं ईनाम हाथ में लिए घर को चले जा रहे हैं, कुर्सियाँ खाली हो चुकी हैं. अलार्म अब भी बज रहा है, बिस्तर मे लेटा हुआ सोच रहा हूँ क्या करूँगा वहाँ जाकर. घर पर ही बाबा साहेब की प्रतिमा पर माल्यार्पण करूँ तो ? चलना ही बहतर होगा शायद. देखता हूँ  क्या हो सकता है.

  • दीपक वर्मा की कलम से

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