यह स्वराज्य न होकर हम पर राज्य है! – डॉक्टर बाबा साहब अंबेडकर द्वारा मूकनायक के लिए लिखा गया तीसरा संपादकीय


(डॉक्टर बाबा साहब अंबेडकर द्वारा मूकनायक के लिए 28 फरवरी 1920 को लिखा गया तीसरा संपादकीय)

पिछले अंक में राष्ट्रीय सभा जिला- *कांग्रेस* की बढ़ती हुई भूख पर चर्चा हुई। ब्रिटिश राज्य पद्धति को सुराज्य पद्धति में करने के लिए उसका जन्म हुआ है। फिर भी समयानुसार सुराज्य की मांग कर उसने स्वराज्य का उपहार प्राप्त किया है, अतः उसका अपमान नहीं किया जा सकता है। परंतु यह उचित है अथवा नहीं है? इसका आंकलन करना अति आवश्यक है। उपहार कैसा हानिकारक हो सकता है? जिनको यह ज्ञात होगा कि शंकर ने अत्याधिक आनंदित होकर भस्मासुर को जो उपहार दिया था उससे दूसरों को जाने दे, स्वयं शंकर की बहुत संकटमय अवस्था हुई थी। अब उन्हें और अधिक बताने की आवश्यकता नहीं है। आत: जिसने इसके मर्म को जान लिया है, उसने इस स्वराज्य की मांग के मूल में जो बात है, उसका अध्ययन करना अति आवश्यक है। उसके बगैर दी गई भी लाभदायक या हानिकारक है? इस महत्वपूर्ण प्रश्न का उत्तर ढूंढने में कोई कठिनाई नहीं होगी। तब ब्रिटिश राज्य शासन क्या ठीक नहीं है? इसका उत्तर मिल जाने पर फिर स्वराज्य का भी उत्तर मिल जाएगा। अतः इसी प्रश्न को सामने रखकर उसकी जांच करनी होगी।

कुछ दुराग्रही लोगों को छोड़ दें, तो अब तक राज्य कारोबार में सुधार हुआ है। इसमें कुछ तथ्य नहीं है, ऐसा कहने वाले लोग इस राष्ट्रीय सभा में नहीं हैं, इसे सौभाग्य ही समझिए। इसके लिए यह राष्ट्रीय सभा कृतज्ञ है या नहीं? यह प्रश्न अलहिदा है। परंतु इस सभा का समाधान क्यों नहीं होता है? यह निश्चित करने के लिए तथा ब्रिटिश राज्य कारोबार के दोषों की ओर ध्यान देने पर दिखाई देगा की अंग्रेजी साम्राज्य में प्रजा की दरिद्रता तथा उसकी निस्तेज मनो भूमिका, यह दो महत्वपूर्ण असंतोष के कारण हैं। स्वराज्यवादियों की भांति प्रजा सुख संपन्न हो तथा उसकी सतेज़ मनोदशा हो, यह मानवीय उन्नति के प्रमुख कारण हैं। हमारा यह प्रमाणिक मत है तथा इसके लिए स्वराज्य के बगैर दूसरा कोई उपाय नहीं है। अतः ईश्वर करे तथा स्वराज्य वादियों के मुंह में घी-शक्कर गिरे, यह आशावाद रखना पड़ेगा। परंतु उनके मुंह में घी-शक्कर डालने को आज हम तैयार नहीं हैं। कारण यह है कि साधु-संतों ने उपदेश दिया है….”प्राणी जो-जो इच्छा करता है, उसे चक्रपाणि पूरा करता है।”अतः हिंदी जनों के व्यवहार की बहुत सी बातें चक्रपाणि (विष्णु) के साथ में न होकर वह दलालों के हाथों में है, ईसे हम भुला नहीं सकते हैं। इसीलिए स्वराज्य का व्यावहारिक रूपांतरण कैसा होगा? यह देखना बहुत आवश्यक है।

हिंदुस्तान अन्य देशों की तुलना में गरीब है। इस बात में कोई संदेह नहीं है। प्रति व्यक्ति वार्षिक आय की दृष्टि से देखने पर हिंदुस्तान की आर्थिक स्थिति चिंताजनक है। बेल्जियम, डेनमार्क, जर्मनी, फ्रांस, इटली, स्पेन, स्विट्जरलैंड, ग्रेटब्रिटेन तथा अमेरिका की प्रति व्यक्ति आय (युद्ध पूर्व के आंकड़े अनुसार) क्रमश: 28, 32, 31, 27, 12, 22, 16, 19,40 पौंड है। परंतु हिंदुस्तान जैसे सघन आबादी वाले देश में प्रति व्यक्ति आय 2 पौंड है। इससे स्पष्ट होता है कि इस देश की आर्थिक स्थिति कितनी दयनीय है? यह अलग से बताने की कोई जरूरत नहीं है। ब्रिटिश साम्राज्य स्थापित होने के पहले किस देश की आर्थिक स्थिति अन्य देशों की तुलना में अग्रक्रम में थी। परंतु ब्रिटिश लोगों की विघातक उद्योग नीति के कारण यह देश पिछले क्रम पर पहुंच गया है। ऐसा कहने वाला एक पक्ष है। परंतु उस पक्ष के साथ विवाद करने में कोई लाभ नहीं है। आर्थिक उन्नति के राजमार्ग के संबंध में चर्चा करने की यह जगह नहीं है। स्वराज्य के शासन काल में गरीबी उन्मूलन करने वाले स्वराज्यवादियों का निर्धारित मार्ग कितना उचित है? यह तय करना आज का कर्तव्य है।

स्वराज्यवादियों के मतानुसार हिंदुस्तान की गरीबी के मूल में इस देश की अनियंत्रित व्यापार प्रणाली है। व्यापार प्रणाली को नियंत्रित करना ही देश से गरीबी को दूर करने का मुख्य मार्ग है। ऐसा कहने पर कोई आक्षेप नहीं लेगा। यह मार्ग योग्य है या फिर परेशानी में डालने वाला है, इसका निर्णय अर्थशास्त्र के सिद्धांत अनुसार करना चाहिए। जो वस्तु हम कम मूल्य पर तैयार कर सकते हैं, उसे दूसरे भी राष्ट्रों ने तैयार करना चाहिए एवम उस वस्तु को अन्य राष्ट्रों को बेचना चाहिए। परंतु स्वदेश में कम मूल्य पर तैयार न होने वाली वस्तु को दूसरे राष्ट्र से खरीदना चाहिए। इसी में सभी राष्ट्रों का फायदा है यह अर्थशास्त्र का सर्वमान्य नियम है। राष्ट्रों के बीच परस्पर व्यापार इसी सिद्धांत के अनुसार होता है। एक देश का उत्पादित माल दूसरे देश में निर्यात होता है। तात्पर्य यही है कि पहले देश को दूसरे देश की अपेक्षा कम कीमत पर अपना माल तैयार करने करते आता है। उसी भांति एक देश में उत्पन्न होने वाला माल दूसरे देश में आयात होता है, इसका यही कारण है। दूसरे देश को वही माल पहले देश की तुलना में कम दाम पर या उसी दाम पर तैयार करते नहीं आता है। इसलिए कम दाम पर उत्पादित माल दूसरे राष्ट्र से खरीदना अनियंत्रित व्यापार प्रणाली का नियम है। यह नियम समस्त अर्थशास्त्रियों को मान्य है। इस तरह जो माल हम कम मूल्य पर तैयार नहीं कर सकते हैं, वह माल जो तैयार करते हैं उनसे न खरीदते हुए स्वदेशी माल को तैयार करने का हट्टाग्रह पकड़ने पर फिर हानि ही होगी, यह निर्विवाद सत्य है।

किंतु यही बात हिंदुस्तान के स्वराज्य वादियों को मंजूर नहीं है। उनके मतानुसार हिंदुस्तान की पूंजी में वृद्धि होने हेतु वर्तमान में जो सामान आयात हो रहा है, वह इसी देश में तैयार होना चाहिए। उसके लिए आयात माल पर प्रतिबंध होना चाहिए अथवा कर लगाना अति आवश्यक है। इसके सिवाय कोई दूसरा मार्ग नहीं है। इस तरह का प्रतिपादन ये समय-समय पर करते रहते हैं। प्रतिबंध लगाकर या कर लगाकर विदेशी सामान का आयात कम होने पर उस कमी को पूरा करने के लिए स्वदेश में उद्योग तथा कारखाने स्थापित किए जाएं। परिणामत: यह देश गरीब देश संपन्न होगा। इस तरह के प्रवचन देने वाले स्वदेशी अर्थशास्त्रियों को नियंत्रित व्यापार प्रणाली के स्वरूप की शायद पूरी कल्पना नहीं है परंतु हमें तो कहना ही पड़ेगा कि जो विदेशी माल आयात किया जाता है उसका कारण ही यही होता है कि वह कम कीमत में प्राप्त होता है। वही माल कम दाम पर स्वदेश में उत्पन्न नहीं होता है। फलत: अधिक दाम होने के कारण व्यापार में विदेशी माल के सामने वह टिक नहीं पाता है। अपना माल टिक पाए, इसके लिए विदेशी माल को रोका जाए, इस महामंत्र का जाप चालू है। परंतु विदेशी सामान की रोकथाम करने पर फिर अधिक दाम पर स्वदेशी सामान खरीदना पड़ेगा। क्या किसी ने इसका विचार किया है? विदेशी माल के एवज में विदेशी माल के एवज में स्वदेशी माल की बिक्री होकर स्वदेशी उद्योग तथा कारखाने जरूर स्थाई हो जाएंगे। इससे देश का कल्याण होगा, यह कहने के बजाय देश के पूंजीपतियों का कल्याण होगा। यह कहना यथार्थपरक होगा। अनियंत्रित व्यापार प्रणाली का प्राप्त सस्ता माल नियंत्रित व्यापार प्रणाली में गरीबों को अधिक दाम देकर खरीदना पड़ेगा। इससे उसका जो शोषण होगा वह *स्वदेशी* नामक शब्द से दूर हो जाएगा, यह संभव नहीं है। जिनका शोषण होगा, वह लोग अधिकांश बहिष्कृत हैं। उनकी जेब काट कर दूसरों का कल्याण कर समस्त देश का कल्याण होगा, ऐसा यदि स्वराज्य वादियों को लगता है, तो यह केवल उनका भ्रम है। स्वराज्य के उपाय से गरीबी समाप्त हो जाएगी, ऐसा मानने के लिए गरीब इतने पागल नहीं हैं। कारण संपन्नता का स्वदेशी मार्ग उन्हें तो त्रस्त करके ही रहेगा।

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स्वराज्य वादियों की भविष्यवाणी का कैसा परिणाम होगा? इसका हमने विचार किया है। उन्होंने दूसरी भी भविष्यवाणी की है, उसका क्या परिणाम होगा हम अब उसका विवेचन करेंगे। अंग्रेजी राज्य कारोबार के दूसरे दोष का विवेचन करते हुए स्वराज्य की हिमायती कहते हैं कि जिन जिन परिस्थितियों में एक वर्ग का या एक व्यक्ति का वर्चस्व दूसरे वर्ग या व्यक्ति पर स्थापित होता है, तब वह वह परिस्थिति दोनों के लिए हानिकारक होती है। जिन पर इस प्रकार का वर्चस्व स्थापित होता है, ऐसे स्वामित्व स्थापित करने वाले लोग राजा, लोकपाल, सृष्टिकर्ता, प्रजापति, भूदेव, ईश्वरांश, ईश्वरावतार, काल कारक, न्यायमूर्ति, सदगुण निधान, कृपासागर आदि विशेषणों से विभूषित होते हैं। जबकि स्वामी के अधीन लोगों को हीन, पतित, आज्ञाकारी, सेवक, किंकर आदि विशेषण लगाने की आदत पड़ जाती है। इस प्रकार पराधीन होने पर सत्ताधारी जैसा व्यवहार करेंगे, उसी प्रकार आचरण करना हमारा धर्म है, यह उनकी दृढ़ सोच बन जाती है। मस्तिष्क में इस पर किस तरह पीढ़ी दर पीढ़ी बीजारोपण होने के कारण फिर मनोदशा दृढ़ बन जाती है। आगे चलकर जिन्हें पूज्य मानने की आदत लग जाती है, फिर वह पूज्यता का पात्र भी न रहा हो, तब भी उसका अपमाण या धिक्कार करने का साहस नहीं हो पाता है। उसी तरह वर्चस्व स्थापित लोगों को अपने स्तुति गान की आदत लग जाती है तथा उन्हें पीढ़ी दर पीढ़ी स्तुति सुनते सुनते उनकी मनोदशा हो जाती है फिर भले ही उसमें कोई प्रशंशनीय गुण ना होने पर भी परमपूज्य है, यही लगने लगता है। यदि लोगों ने उन्हें प्रणाम नहीं किया, तब ऐसे लोगों को दंडित करने, वंदन करवाने को विवश करते हैं। ऐसी अवस्था में सवर्णों में जैसा दुराभिमान उत्पन्न होता है, ठीक इसके विपरीत अवर्णों का स्वाभिमान नष्ट होता है। सवर्ण को आदेश देना उसका अधिकार लगता है, उसी प्रकार अवर्ण को आज्ञा का पालन करना अपना कर्तव्य लगता है। ऐसी परिस्थिति में सवर्णों की मनोदशा कठोर होती है, तो अवर्ण की मनोदशा निस्तेज होती है। इनके मन में कुछ कर पाने की लालसा ही कुछ खत्म हो जाती है। जहां-जहां ऊंच-नीच की दरार पड़ती है, वहां वहां उच्च लोगों की मानसिक दासता में फंसे हुए निम्न लोगों के व्यक्तित्व का विकास होना असंभव होता है।

दिवंगत गोखले द्वारा व्यक्त किया गया दोष ब्रिटिश राज्य कारोबार का न होकर, यही दूसरा पारंपरिक दोष था। उनके मतानुसार विदेशी राज कारोबार संबंधी खर्च से होने वाला नुकसान अक्षम्य मानकर उसे बाजू में भी रख दिया जाए, तथापि विदेशी राजकारोबार से होने वाला नैतिक नुकसान अक्षम्य है। विदेशी वर्चस्व के कारण हिंदी जनता का सोच ठिगना होते जा रहा है। हमारा दर्जा कम है, ऐसे सोचनिय वातावरण में हम दिन गुजार रहे हैं तथा परिस्थिति का सम्मान करने के लिए कर्तव्य परायण मनुष्य को भी निम्न दर्जे का स्वीकार करना पड़ रहा है। ऐसी स्थिति में उसका संपूर्ण विकास होना संभव नहीं है। स्वराज्य में रह रहे लोगों में दिखाई देगा कि उन्हें अपने आत्म बल का प्रभाव दिखाने का अवसर प्राप्त नहीं हो रहा है। अंग्रेजी सत्ता में जो नाकेबंदी हो रही है, उसकी रोकथाम के लिए तथा लोगों में स्वाभिमान उत्पन्न करने के लिए स्वराज्य की आवश्यकता है। यह बात कबूल करने में कोई कठिनाई नहीं होगी।

हमारे मतानुसार स्वराज्य के दो कारणों में से यही कारण सबल है। व्यक्ति का विकास करने के उपाय के रूप में स्वराज्य को हमारी ना नहीं है। परंतु अंग्रेजी सत्ता के विरोध में यह आक्षेप ब्राह्मणों के मुख से जब शोभायमान लगता है, तब यही आक्षेप ब्राह्मणी राज्य के विरोध में बहिष्कृत व्यक्ति द्वारा लेने पर हजार गुना शोभायमान लगेगा। इसे गलत कहने वाला शायद ही कोई व्यक्ति दिखाई देगा। इसलिए जिन स्वराज्य वादियों को व्यक्ति विकास की इतनी चिंता है वह जिसके लिए इन्होंने कारावास भोगा है, तब इन लोगों ने छह करोड़ बहिष्कृत लोगों के व्यक्ति विकास के मार्ग को खुला करने के लिए फिर क्या किया है? ऐसा उल्टा प्रश्न हम पूछना चाहते हैं। विदेशी सत्ता के विरोध में हिंदी जनमानस में सूक्ष्महीनता की लहर राष्ट्रीय सभा को दिखाई पड़ती है, किंतु स्वजनों के राज में बहिष्कृत लोगों के मन में उद्भव हुई हीनता की लहर इन्हें क्यों नहीं दिखाई पड़ती है? शायद वह लहर इतनी चमकदार होगी, जिसकी प्रखरता के कारण ब्राह्मणों की आंखें चुंधिया गई होंगी, या फिर उनकी उस ओर देखने की इच्छा ही नहीं होगी। इन दोनों में से दूसरा ही तर्क सही होगा, यही सिद्ध होता है।

विदेशियों की दासता से मुक्त होने के लिए छटपटा ने वाली राष्ट्रीय सभा ने स्वजनों को स्वजनों की ही दासता से निकालने हेतु क्या किया है? यह संशोधन करने पर स्पष्ट होता है कि सभा की दासता कायम रखने में भूमिका रही है। इस राष्ट्रीय सभा की जब स्थापना हुई, तब कार्यक्रम को लेकर बहुत विवाद हुआ था। राजनीतिक मांग पहले रखें या सामाजिक दासता में जो अटके पड़े हैं, उन देश बंधुओं को मुक्त करने का प्रथम प्रयत्न करें? इस पर बहुत दिनों तक संघर्ष चलता रहा। किंतु जिस सभा में ब्राह्मणों का अधिक प्राबल्य था, उन्होंने अपने कर्म धर्म के अनुसार स्वजनों की दासता विमोचन के महत्वपूर्ण कार्य से दूर धकेल लिया। फलत: दासता को कायम रखते हुए विदेशियों से अपनी दासता को मुक्त कराने वाला सुविधाजनक मार्ग पकड़ा, इसे सभी जानते हैं। जिन कुछ लोगों को सामाजिक सुधार महत्वपूर्ण लग रहा था, उन्होंने “सामाजिक परिषद” नाम से एक अलग संस्था स्थापित की। परंतु आज तक इस सामाजिक परिषद का उद्देश्य एकदम सीमित है। बाल विवाह, विधवा विवाह, समुद्र प्रयाण तक ही उस परिषद की मर्यादा है। फलत: ब्राह्मणों को की सत्ता को तिल भर भी धक्का नहीं पहुंचता है। फिर भी राष्ट्रीय सभा की ओर से इस परिषद की अवहेलना ही की जाती थी। सन 1895 में जब इस सभा का 9वां अधिवेशन पुणे शहर में था, तब पुणे के राष्ट्र भक्तों ने परंपरागत पद्धति को न मानते हुए इस राष्ट्रीय सभा के मंडप में जाकर छुआछूत को न मानने की घोषणा करते हुए अपना क्षोभ व सदाशयता व्यक्त की थी।

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ब्रिटिशों की राजकीय सत्ता जितनी सवर्ण हिंदुओं की महत्वाकांक्षा में अवरोध नहीं करती है, उससे कई हजारों गुना सवर्णों का सामाजिक व धार्मिक वर्चस्व इन छह करोड़ अछूतों की उन्नति में अवरोध पैदा करता है। इन स्वहित साधने वाले धर्मों को क्या यह बात बताने की आवश्यकता है? जो सामाजिक बंधन वरिष्ठ हिंदुओं का पोषक है, वही बंधन है अस्पर्श्य वर्ग के लिए मारक है। जिसके कारण यह वर्ग नागरिकता से विमुख हो गया है। किसी भी व्यक्ति को नागरिक होने के लिए कुछ अधिकार प्राप्त होते हैं जिनमें

1.व्यक्तिगत स्वतंत्रता
2.व्यक्तिगत संरक्षण
3. निजी संपत्ति रखने का अधिकार
4. कानूनन समानता
5. सदविवेक, बुद्धि का अनुसरण करते हुए आचरण की छूट
6. भाषण की स्वतंत्रता तथा मतदान की स्वतंत्रता
7. सभा के आयोजन का अधिकार
8. देश की राजनीति में प्रतिनिधि भेजने का अधिकार तथा
9. सरकारी नौकरी प्राप्त करने का अधिकार शामिल हैं।

परंतु सामाजिक बंधनों के कारण अछूत अधिकांश अधिकारों से बेदखल किए गए हैं। ब्रिटिश सत्ता में पहले दो अधिकार सबको मिले हुए हैं तथापि उच्च वर्णीय हिंदुओं के राज में इनके अधिकारों को धूल धूसरित किया गया है। ऐसे अनेकों उदाहरण अस्पर्श्य लोग बता सकते हैं। उसी तरह कानून के बाद सभी स्थानों पर अछूतों तथा दूसरे लोगों के बीच समता पूर्ण व्यवहार किया जाता है, यह कहना सही नहीं होगा। अधिकार क्रमांक 5 6 7 8 यद्यपि समस्त हिंदी जनों को यह अधिकार सीमित प्रमाण में दिए गए हैं, तथापि ये अधिकार है अस्पर्श्य वर्ग के हिस्से में बहुत कम प्रमाण में मिलते हैं। मतदान की स्वतंत्रता तथा भाषण की स्वतंत्रता या सभा आयोजित करने का अधिकार प्रस्थापित राज्य के लिए घातक होगा। अतः इस ढंग से चलते प्रशासन में किसी को छूट नहीं होती है। फिर भी इस अधिकार का उन्होंने वरिष्ठ हिंदुओं के सामाजिक दमन के विरुद्ध उपयोग किया, तब मनाई के कारण जितना नुकसान इनका होगा, उतना दूसरों का नहीं होता है। सरकारी नौकरी प्राप्त करने का अधिकार मिलना या नहीं मिलना एक जैसा ही है। कारण छुआछूत की भावना के कारण उन्हें लाभ नहीं मिल पाता है। जिन जिन अस्पर्श्य लोगों ने सेना में भर्ती होकर अंग्रेजों को हिंदुस्तान का राज्य दिलाने में अपने प्राणों की आहुति दी, उसी संरक्षण विभाग में किस कारण विद्रोह हुआ? यह अंग्रेजो को ज्ञात हो चुका है। पढ़ लिख कर भी जाति छुपाए बगैर या धर्मांतरण किए बगैर नौकरी के सामान्य अधिकार का उपभोग अछूत नहीं कर सकते हैं। निजी संपत्ति रखने का अधिकार अंग्रेजी कानून में है। परंतु मनु के आदेश के कारण संपत्ति हासिल नहीं की जा सकती है। तब उस अछूत ने अपने पास आखिर क्या करना चाहिए? बस अखंड दरिद्रता! ऐसा होकर भी उसकी ओर अनदेखी करने वाले या वह गलत नहीं है, ऐसा कहने वाले हिंदुओं के साथ जैसे को तैसा व्यवहार करना गलत नहीं है।

इन बहिष्कृत लोगों का स्वजनों की ओर से हो रहा अपमान जितना दुखद व क्षोभजनक है, उतना ही सोचनीय। ब्रिटिश राज्य कर्ताओं की गलत नीति है। “जाति तथा रूढ़ि-परंपरा पर कानून का मूलम्मा चढ़ाते समय कानून बनाने वाली काउंसिल ने अपनी मर्यादा में रहना चाहिए। उस मर्यादा का उल्लंघन कर समाज के विचारों का उसने प्रत्यक्ष रूप में विरोध नहीं करना चाहिए।” स्वयं सरकार ने 8 अक्टूबर, 1886 को इस सर्व सामान्य नियम को बंधनकारक घोषित किया है। इससे मतलब एकदम स्पष्ट है कि सामाजिक व धार्मिक विषय में यदि अन्याय होता है, तब उसके निवारणार्थ सरकार अपनी सत्ता का उपयोग करेगी। तात्पर्य यह है कि सामाजिक दमन अबाध रूप से चलता रहे, इसके लिए इसे सरकारी लाइसेंस ही समझिए। कुछ बातों में राजदंड लगाए बगैर सामाजिक अन्याय का निर्मूलन होना असंभव है इसलिए अछूतों के लिए यह राजदंड “रहा या न रहा क्या” यही कहना पड़ेगा। उल्टे जिनके हाथों में यह राजदंड है, उन्हें स्वराज्य उपहार में मिलने से लगता है कि निम्न जाति के लोगों पर हमारा प्रभाव यथावत बना रहे तथा अंग्रेज रूपी कांटा हमारी राह से भी हट जाए। यही इनका उद्देश्य है। सारांश यह है कि स्वराज्य, यानी _हमारे ऊपर राज्य_। अंग्रेजी सत्ता में हमें जिनकी बात सहन नहीं होती थी, अब उनकी लातें सहन करनी पड़ेगी। स्वजनों के सामाजिक, आर्थिक व धार्मिक अत्याचार के बीच अंग्रेजी सत्ता का सुदर्शन लुप्त होकर _स्वराज्य का_ *हम पर वज्राघात* होगा। इसलिए हम कहते हैं कि यदि देना है तो ऐसा स्वराज्य दो, जिसमें हमारा भी थोड़ा बहुत राज्य होगा।

From – Dr Sunil Kumar

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