बहुजन समाज के एक महान समाज-सुधारक और साहित्यकार स्वामी अछूतानंद जी


बहुजन समाज के एक महान समाज-सुधारक और साहित्यकार “स्वामी अछूतानंद जी” का जन्म 1879 में “चमार” जाति में जिला मैनपुरी, उत्तरप्रदेश के सिरसागंज तहसील ग्राम उमरी में हुआ था। इनके बचपन का नाम “हीरालाल” था।

स्वामी अछूतानंद जी के पिता दो भाई थे और दोनों ही अंग्रेजी फौज में सैनिक थे जिस वजह से उनको प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त करने में ज्यादा परेशानी का सामना नहीं करना पड़ा और 14 वर्ष की आयु में उनका “दुर्गाबाई” नामक कन्या से विवाह करा दिया गया।

स्वामी जी बीसवीं सदी के प्रारम्भ में कांग्रेस की राष्ट्रीय विचारधारा से प्रभावित हुऐ, फिर 1905 में आर्य समाजी “सच्चिदानंद” के सम्पर्क में आ गऐ और उनके शिष्य बनकर आर्य समाज का प्रचार-प्रसार करने लगे। वहीं उनका नाम हीरालाल से “स्वामी हरिहरानन्द” पड़ा।

स्वामी अछूतानंद जी ने आर्य समाज के सम्पर्क में रहते हुऐ वेदों और सत्यार्थ प्रकाश का भी गहन अध्ययन किया, साथ ही उन्हें अनुभव हुआ कि आर्य समाजियों का जाति-पांति विरोध महज दिखावा है और ये लोग ब्राह्मणवाद से ग्रसित हैं। अंततः उन्होंने 1912 में आर्यसमाज का त्याग कर दिया।

आर्य समाज का त्याग करने के बाद स्वामी हरिहरानन्द ने फिर अपना नाम बदलकर ‘हरिहर’ कर लिया। अब वे हरिहर के नाम से लोगों को आर्य समाज के ढोंग के बारे में बताने लगे। उन्हीं के शब्दों में :

वेद में भेद छिपा था, हमें मालूम न था।

हाल पोशीदा रखा था, हमें मालूम न था।।

‘मनु’ ने सख्त थे कानून बनाये ‘हरिहर’।

पढ़ना कतई मना था, हमें मालूम न था।

उसके बाद उन्होेंने़ हिन्दू धर्मग्रंथों, वेद, पुराण और मनुस्मृति पर सीधा हमला बोलते हुऐ सदियों से प्रचलित अस्पृश्यता, वर्णव्यवस्था, सामाजिक विषमताओं और रूढ़ियों पर प्रहार करते हुऐ शूद्रों और अछूतों में सामाजिक और राजनैतिक चेतना के बीज बौने शुरु कर दिऐ। साथ ही उन्होनें अपना नाम “अछूतानंद” भी रख लिया।

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स्वामी अछूतानंद जी के इस कार्य से बौखलाऐ एक आर्यसमाजी उपदेशक “अखिलानंद” ने उन्हें शास्त्रार्थ करने चुनौती दे डाली। जिसे स्वामी जी ने सहर्ष ही स्वीकार लिया और 22 अक्टूबर 1921 को दिल्ली में शास्त्रार्थ हुआ और स्वामी अछूतानंद जी की उसमें विजय हुई।

आर्य समाजी उस समय स्वामी जी पर इतने बौखलाऐ हुऐ थे जिसका अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि जब 1922 में उन्होंने “आदि हिन्दू आंदोलन” की स्थापना की थी तो उन्होंने आगरा में जब यह आंदोलन चलाया तो आर्यसमाजियों ने आर्यसमाज से प्रभावित कुछ दलितों को ही आगे कर उनपर पथराव करवाया तथा उन्हें वहां आंदोलन नहीं चलाने दिया।

स्वामी जी ने दिल्ली में 1922 के अखिल भारतीय अछूत सम्मेलन में शूद्रों/अछूतों का आह्वान करते हुऐ कहा था-

“आदिधर्मी शूद्र/अछूत सवर्ण हिन्दुओं, सम्पन्न मुसलमानों और शासनकर्ता अंग्रेजों के तिहरे गुलाम हैं। गांव में वो अस्पृश्यता और दासता के शिकार हैं, शहर में उनपर बेरोजगारी की मार है। उनकी अलग गंदी बस्तियां, उनकी दयनीय सामाजिक-आर्थिक स्थिति का ज्ञान कराती हैं, साथ ही हिन्दु समाज के अनवरत शोषण का पता भी देती हैं जिसकी ओर ब्रिटिश सरकार ने ध्यान ही नहीं दिया है। दलित तो मेहनतकश लोग हैं, लेकिन जातिप्रथा के कलंक और अस्पृश्यता के विष ने उन्हें डस रखा है। यह सब हिन्दू समाज की मेहरबानी है। जिस पर अचरज है अभी तक अंग्रेज सरकार का पूरी तरह ध्यान ही नहीं गया है”

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उसके बाद स्वामी जी के 1928 में बम्बई में आदि हिन्दू आंदोलन के राष्ट्रीय अधिवेशन में “बाबासाहेब अंबेडकर” और स्वामी अछूतानंद जी की पहली बार भेंट हुई थी। बाबा साहेब ने स्वामी जी को सामाजिक व राजनीतिक लड़ाई में सहयोग देने के लिये धन्यवाद भी दिया था।

स्वामी जी कांग्रेस के भी कट्टर विरोधी थे उनका मानना था कि कांग्रेस में शोषक वर्ग सवर्ण, मुस्लिम नवाब और ब्राह्मणों का ही आधिपत्य है। यहां तक कि उनका कहना था गांधी वर्णव्यवस्था के पक्षधर हैं इसलिये उनका शूद्र/अछूत प्रेम महज दिखावा मात्र है। गांधी ने जब शूद्रों/अछूतों को “हरिजन” नाम दिया था तब स्वामी जी ने इसका विरोध कविता के मध्यम से किया था-

“कियो ‘हरिजन’ पद हमें प्रदान
अन्त्यज, पतित, बहिष्कृत, पादज, पंचम्, शूद्र महान
हम हरिजन तौ तुमहूँ हरिजन कस न, कहै श्रीमान्…?
की तुम हौ उनके जन, जिनको जगत कहत शैतान”

स्वामी अछूतानंद जी का शोषित-वंचित की लड़ाई लड़ते हुऐ 22 जुलाई 1933 को कानपुर में परिनिर्वाण हो गया। उनकी शव-यात्रा में हजारों पुरुष व स्त्री शामिल हुऐ थे। निःसंदेह बीसवीं सदी के प्रथम तीन दशकों में भारत के वो एक महान दलित योद्धा थे।

स्वामी अछूतानंद जी ने कहा –

शूद्रों गुलाम रहते, सदियाँ गुजर गई हैं।

जुल्मों सितम को सहते, सदियाँ गुजर गई हैं।

अब तो जरा विचारो, सदियाँ गुजर गई हैं।

अपनी दशा सुधारो, सदियाँ गुजर गई हैं।

लेखक – सत्येंद्र सिंह

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