बहन मायावती, बाबासाहेब आंबेडकर के बाद अकेली ऐसी नेता जिसने गरीबो-मजलूमों के हक़ के लिया दिया इस्तीफा


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हम सब ने देखा है और सब को पता है की एक बार बस कोई MLA जा फिर MP बन जाए तो कुर्सी को ताला लगा लेते है चाहे जनता मरे चाहे जिए ऐसे नेताओ को कोई फर्क नहीं पड़ता। उनको तो बस अपनी कुर्सी प्यारी रहती है।

नैतिकता को तो छोड़ दो यहाँ नेता अपराध में लिपत होने पर भी अपनी कुर्सी नहीं छोड़ते। बहुत से नेताओ को बस मौका की बस कुर्सी मिल जाए और उस के लिए जनता को जूठी बातो में फसाते है और बाद में कुर्सी मिलने पर जनता को किये वादे भूल जाते है। आप सब ने तो देखा ही है की कैसे बीजेपी और मोदी ने 2014 चुनाव के पहले कितने वादे किये थे पर हुआ क्या कुछ उन वादों पर अमल?

बल्कि दलित और अल्पसंख्यक समुदायों ऊपर लगातार जुल्म बढ़ते चले गए मोदी सरकार में और बहन मायावती के इलावा कोई भी उन जुल्मो के खिलाफ आवाज़ उठाने वाला नहीं था। चाहे रोहित वेमुला हत्या हो जा फिर ऊना में दलितों पर अत्याचार बहन मायावती ने आवाज़ उठाई इन जुल्मो के विरोध में।  अब जब बहन मायावती सहारनपुर में दलितों के ऊपर हुए अत्याचार के विरोध में अपनी आवाज़ राज्य सभा में रख रही थी तो उनको दलितों-पिछडो की आवाज़ उठाने से रोका गया। मनुवादीओ को यह बिलकुल भी अच्छा नहीं लगता की कोई दलितों और पिछडो के हक़ की बात करे। जब बहन जी को दलितों-पिछडो की आवाज़ नहीं उठाने किया गया तो उन्होंने राज्य सभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया।

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बाबासाहेब आंबेडकर और बहन मायावती के इलावा आज तक के भारत के इतिहास में किसी नेता ने नहीं पदवी छोड़ी है।

दोनों दलित नेताओ ने इस लिए त्यागपत्र दे दिया क्यों की इनको गरीबो की आवाज़ उठाने से रोका गया। बाकि जो ऊँची जाति कहे जाने वाले बस कुर्सी मिली नहीं की फेविकोल साथ लिए घूमते है, और कुर्सी मिलते ही चिपक जाते है कुर्सी से। चाहे दलित-मुस्लिम, गरीब मरते रहे इन को कोई फर्क नहीं पड़ता बस कुर्सी नहीं छोड़ते।

जो सच्चा नेता होता है वो गरीबो की परवाह करता है और जब उस की आवाज़ को दबाया जाता है तो उस कुर्सी को लात मारता है वो। क्युकि उसको कुर्सी की कोई ज़रूरत नहीं होती। उसका मक़सद गरीबो, कुचले लोगो की मदद करना और उन की आवाज़ ऊपर तक पहुंचना होता है।

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ऐसा ही अपने देखा जब बाबासाहेब आंबेडकर और  बहन मायावती को गरीबो-मजलूमों की आवाज़ नहीं उठाने दिया मनुवादी लोगो ने, उन्होंने उस कुर्सी को लात मरना अच्छा समझा। ऐसे भी उस कुर्सी का क्या काम जिस पर बैठ कर आप गरीब-मजलूमों की आवाज़ न उठा सको और उनके लिए काम न कर सको?

ऐसा भारत के इतिहास में सिर्फ दो बार ही हुआ है शयद की किसी नेता ने गरीब-मजलूमों के हक़ में अपनी MP की  सीट छोड़ी हो। दोनों बार दलित नेताओ ने समाज को दिखा दिया की कुर्सी से ऊपर गरीब-मजलूमों के हक़ की उनको जयादा परवाह थी। काश ऐसे नेता और होते भारत में जो गरीब-मजलूमों के हक़ में लड़ते। काश।

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