“बहुजन” से “सर्वजन” – सही, साजिश या भूल ?


Author – सतविंदर मनख

2007 में; OBC, SC, ST जातियों के “बहुजन” आंदोलन को बदल कर, “सर्वजन” किया गया। यह सही फैसला था; एक साजिश थी या बहुत बड़ी भूल ? इस विषय पर, एक लंबी बहस छिड़ चुकी है।

राष्ट्रपिता महात्मा जोतीराव फुले ने इन्हें शूद्र(जाट, सैनी, कुर्मी, पटेल, मराठा, आदि), अति-शूद्र(वाल्मीकि, चमार, पासी, धोबी, आदि) कहा और फिर “बहुजन समाज” का नाम दिया। बाबासाहब अम्बेडकर ने संविधान में इन्हें तीन पहचाने दीं; OBC, SC, ST. साहब कांशी राम ने इनमें से धर्म परिवर्तन कर बने; मुसलमान, सिख, ईसाई, बौद्ध को भी साथ जोड़ा और “बहुजन समाज” की पहचान को दुबारा जीवित किया।

उनकी सोच थी कि इन सभी की ब्राह्मणवाद द्वारा आर्थिक लूट और धार्मिक-सामाजिक शोषण हुआ है। अगर यह अलग-अलग संघर्ष करते हैं तो “अल्पजन” रहते हैं, अल्पसंख्यक रहते हैं; इकठ्ठा हो जाएँ तो “बहुजन” बन जाते हैं, बहुसंख्यक हो जाते हैं।

साहब ने “बहुजन” की सोच को, शून्य से शुरू करके पूरे देश की राजनीति में भूचाल ला दिया। 1984 से सिर्फ दस सालों में ही, उत्तर प्रदेश की सत्ता में जा पहुँचे। बहुजन समाज को 1996 में राष्ट्रिय, 1999 में देश की तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बना कर दी। ऐलान किया कि 2004 के लोक सभा चुनावों में, “बहुजन समाज” देश का हुक्मरान बन, अपनी ग़ुलामी का अंत करेगा।

लेकिन ऐसा हो न सका। वो सितम्बर 2003 में बीमार हुए, बहुजन समाज पार्टी की बागडोर, बहन मायावती के हाथों में आयी। साहब 9 अक्टूबर 2006 को दुनिया को अलविदा कह गए।

कुछ ही महीनों बाद, 2007 में उत्तर प्रदेश के चुनाव हुए। इस में बहन मायावती द्वारा, इस पूरे आंदोलन को एक नया ही मोड़ दिया गया। डेढ़-दो सौ सालों से, जिस “बहुजन” की सोच को महापुरुषों ने आगे बढ़ाया था; उसे बदल कर “सर्वजन” किया गया।

महात्मा बुद्ध के विचार, “बहुजन हिताये, बहुजन सुखाये” में भी मिलावट कर, इसे “सर्वजन हिताये, सर्वजन सुखाये” किया गया।

इससे साहब कांशी राम द्वारा चलाई गए “बहुजन” आंदोलन की पूरी दिशा ही बदल गयी।

बहुजन समाज पार्टी की सभाओं में मंचों से नारे लगे, “हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा, विष्णु, महेश है “, “ब्राह्मण शंख बजायेगा, हाथी दिल्ली जायेगा।” बाबासाहब अम्बेडकर ने 14 अक्टूबर 1956 को लाखों लोगों के साथ, “हिन्दू धर्म” छोड़ “बुद्ध धर्म” अपनाया। उन्होंने सब के साथ 22 प्रतिज्ञाएँ लीं । उनमें से पहली ही प्रतिज्ञा थी,

1. “मैं ब्रह्मा, विष्णु और महेश को न भगवान मानूंगा और न ही उनकी पूजा करूँगा।”

तीसरी और आठवीं थीं,

3. “मैं न गौरी-गणेश और न ही हिन्दू धर्म के और देवी-देवताओं में यकीन करूँगा और न ही मैं उनकी पूजा करूँगा।”

8. “मैं इस तरह की कोई भी रस्म नहीं करूँगा, जो ब्राह्मणों द्वारा की जाएगी।”

ब्राह्मणों द्वारा बहुजन समाज पार्टी के मंचों से ही, “हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा-विष्णु-महेश है” के एक ही नारे ने, बाबासाहब की इन प्रतिज्ञाओं की धज्जियाँ उड़ा दीं।

बगैर सोच-विचार के, यकायक किये गए इतने बड़े विचारधाराक फेरबदल ने; इस आंदोलन के साथ जुड़े लाखों लोगों को सकते में डाल दिया। लेकिन कईयों ने इसे, एक राजनीतिक दांव समझते हुए गंभीरता से नहीं लिया।

2007 में उत्तर प्रदेश के चुनाव हुए। बहुजन समाज पार्टी, पहली बार 206 MLA जीत कर, बहुमत की सरकार बनाने में कामयाब हुई।

इस का सेहरा, “सर्वजन” की सोच को दिया गया। यह कहा गया कि सरकार, ब्राह्मणो के साथ जुड़ने की वजह से बनी है।

बहुजन समाज पार्टी, अपने राजनीतिक जीवन के सभ से ऊँचे शिकर पर जा पहुँची।

यह भी सुनने में आया कि “बहुजन” का साहब कांशी राम का 15-85 का फॉर्मूला; विपक्ष या समझौते की सरकार ही बनवा सकता है। इस पर चलकर, अपनी बहुमत की सरकार नहीं बनाई जा सकती। इसके लिए “सर्वजन” जैसी रणनीति की जरुरत थी।

लेकिन “सर्वजन” की हकीकत, जल्द ही खुलकर सामने आनी शुरू हो गयी।

दो साल बाद, 2009 में लोक सभा के चुनाव हुए। “सर्वजन” के बलबूते, लखनऊ फतह करने के बाद, अब बारी दिल्ली के तख़्त की थी। अगर 2007 जितनी ही वोटें पड़तीं, तो 40 से ज़्यादा MP जितने चाहिए थे। लेकिन अब सरकार बने 2 साल हो चुके थे, इसलिए वोट और सीटें, दोनों में इज़ाफ़ा होना चाहिए था। अगर 50 MP भी जीतते हैं और केंद्र में किसी को बहुमत नहीं मिला, तो बसपा देश पर राज कर सकती है।

यह सारे सपने; धरे-के-धरे ही रह गए। बहन मायावती के मुख्य मंत्री होने के बावजूद, उप्र में सिर्फ 20 सीटें ही मिलीं। वो उप्र में दूसरे पर भी नहीं; समाजवादी पार्टी और कांग्रेस(जिस का साहब ने उप्र में सफाया कर दिया था) – से भी पीछे, तीसरे नंबर पर खिसक गयी।

दिल्ली तो हाथों से गयी, अब 2012 में लखनऊ के जाने का भी खतरा पैदा हो गया।

2012 में चुनाव हुए। 2007 में 206 सीटें जितने वाली बसपा, पहली बार अपनी 5 साल की बहुमत की सरकार होने के बावजूद भी, महज 80 सीटों पर ही सिमट कर रह गयी। “सर्वजन” की यह दूसरी हार थी।

2014 के लोक सभा चुनाव में तो हद हो गयी। 1989 के बाद पहली बार, बहुजन समाज पार्टी का एक भी MP नहीं जीत सका।

2017 के उप्र के चुनाव। 80 से घट कर MLAs की गिनती, सिर्फ 19 रह गयी(उप्र में कुल 403 सीटें हैं)। बसपा का उसके गढ़, उत्तर प्रदेश में ही सफाया हो गया। यह “सर्वजन” की चौथी हार थी।

2019 में अगर समाजवादी पार्टी के साथ समझौता नहीं हुआ होता, तो जो 10 MP जीते हैं, शायद वो भी न जीत पाते। 2019 की जीत, “सर्वजन” की नहीं बल्कि “बहुजन” की ही जीत थी। SP-BSP गठजोड़; OBC, SC, ST + Minorities(खासकर मुसलमान) की वजह से “बहुजनों” का ही गठजोड़ था।

उत्तर प्रदेश का ब्राह्मण, बहुसंख्या में RSS-BJP में वापस जा चुका है। 2007 के चुनावों में भी उसने BSP को अपना सिर्फ 17% वोट ही दिया था।

“बहुजन” का शानदार इतिहास, 1984 से 2007 तक; फिर “सर्वजन” का शर्मनाक इतिहास, 2007 से 2017 तक(2007 की एक जीत छोड़कर), हमारे सामने है।

“बहुजन” की सोच हमारे महापुरुषों की सोच है; “सर्वजन” हमारे में ब्राह्मणों द्वारा लाया गया। बहुजन, बहुसंख्यक है; हम 85% हैं वो अल्पसंख्यक हैं, 15% हैं। बहुजन एक लकीर खींचता है; कमेरे और लुटेरे में सीधा फर्क करता है। “सर्वजन” सब कुछ धुंधला कर देता है।

विचारधारा किसी भी आंदोलन की बुनियाद होती है। नेता, कार्यकर्ता, संगठन, तो उसे पूरा करने का एक साधन होते हैं।

“बहुजन” से “सर्वजन” को नतीजों को रौशनी में, किसी भी हाल में सही नहीं कहा जा सकता। यह एक साजिश थी या फिर भूल ? इस का जवाब, 2022 से पहले, पूरे बहुजन समाज को ढूंढ लेना चाहिए।

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3 Comments

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  1. 1
    jitendra kumar

    All articles are really interested and fabulous writing we enjoy and learn more about our society and poltics.

  2. 2
    Anil kumar

    विचारधारा वर्तमान भारतीय राजनीति में किस राजनीतिक पार्टी का आधार है? भारतीय जनता पार्टी जो कट्टर ब्राह्मणवादी पार्टी है वो भी कश्मीर में पीडीपी के साथ सरकार बनाती है विचारधारा कहा थी ?

    यहां सिर्फ वर्तमान राजनीति में सट्टा किसी भी कीमत में हासिल करना है जिससे आगे चलकर विचारधारा को बढ़ाने के विकल्प बनते है और मजबूती मिलती है।

    अगर बहुजन समाज पार्टी सरकार बनाने में सफल रहती है तभी बहुजन समाज के हित सुरक्षित रह सकते है वरना वर्तमान राजनीति आप देख ही रहे है।

  3. 3
    P N P Sharma

    मैं इसी बात को बार बार शोसल मीडिया पर उठाता रहता हूं मगर माया भक्त समझने को तैयार नही है।चुनाव से पहले 40-50% ब्राह्मणों को आयात करके बहुजनो के वोट से पार्टी के नाम पर उनको जितवा दिया जाता है मगर वे कभी बहुजनो काम को करते नहीं।और बहुजन उनके दरवाजे पर किसी काम को लेकर जाते है तो भगा दिया जाता है। इसके अलावा आज पार्टी भी ब्राह्मणों का कुछ ज्यादा ही ख्याल रखती है उनके लिए फरसुराम की सबसे बड़ी मुर्ती बनाने की बात होती है। फरसुराम के नाम से हॉस्पिटल बनवाने की बात होती है। मगर ये बात नही होती कि उसमे स्टाफ बहुजनो का ज्यादा से ज्यादा हों।

    मेरे ख्याल मे पार्टी पुरी तरह ब्राह्मण बाद से जकड़ चुकी है।बाबा साहब या माननीय कांसी राम साहब के रास्ते से पुरी तरह भटक चुकी है। माया वती ने मी आरक्षण मे प्रोमोसन का विरोध किया था जो गैर संवैधानिक भी है।
    कुछ यही हाल समाजवादी पार्टी का भी है।

    ब्राह्मणों की कई पार्टियाँ है कांग्रेस, भाजपा, TMC, CPI, CPM मगर केवल एक या दो पार्टियाँ ही बहुजनो थी जो मेरे हिसाब से अब नही रही है। ये दोनों ही पार्टियाँ ब्राह्मणों के इसारे पर चल रही है।

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