सरकार द्वारा मंजूर राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 से ‘आरक्षण’ नदारद 


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केंद्र सरकार ने पिछले हफ्ते राष्ट्रीय शिक्षा नीति को मंजूरी दे दी। जून 2019 में डॉ. के. कस्तूरीरंगन (इस्रो के भूतपूर्व अध्यक्ष) समिति का मसौदा सरकार ने जारी किया था. तभी से राष्ट्रीय शिक्षा नीति पूरे देश भर में भारी चर्चा का विषय बनी हुई थी. सरकार के मुताबिक उस पर जनता से करीब 2 लाख 25 हजार सुझाव आए थे. सरकार की किसी प्रस्तावित नीति को लेकर शायद ही जनता में इतनी उत्सुकता रही हो.

लेकिन राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2019 का मसौदा था ही कुछ अलग. वह सरकारी नीति-निर्देश का दस्तावेज़ कम और कोई रोमांचक उपन्यास ज्यादा लग रही थी. हिन्दी में करीब 650 पन्नों का यह दस्तावेज़ कपोल-कल्पनाओं से भरा पड़ा है. लेकिन शिक्षा नीति को लेकर इस दस्तावेज़ में वर्तमान शिक्षा व्यवस्था का कहीं कोई अभ्यासपूर्ण विश्लेषण नहीं है.

प्रारम्भिक बाल्यावस्था में देखभाल और शिक्षा ((Early Childhood Care and Education/ECCE) का महत्व बताने में कई पन्ने घिस डाले लेकिन बच्चों के लिए घर से स्कूल की दूरी कितनी हो इसका कहीं कोई जिक्र नहीं. यह बात इसलिए अहम हो जाती क्योंकि आर्थिक व्यवहार्यता के नाम पर स्कूलों को बंद कर के स्कूल कॉम्प्लेक्स नाम की नई संकल्पना विकसित करने का प्रस्ताव मसौदा नीति में था. 

सरकार ने अब राष्ट्रीय शिक्षा नीति2020 में अंतिम रूप से स्कूल कॉम्प्लेक्स की संकल्पना को मंजूरी तो दे दी है लेकिन ईसीसीई (ECCE) के तहत बच्चों के लिए घर से स्कूल की दूरी कितनी हो इस बात का अब भी कोई जिक्र नहीं है. स्कूल कॉम्प्लेक्स और ईसीसीई (ECCE) कैसे शिक्षा क्षेत्र में क्रांति लाएगी इस पर भले ही उपन्यास की तर्ज पर लफ्फाजी जरूर है. 

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एनईपी 2019 के मसौदा नीति में कोई भी अनुभवजन्य साक्ष्य नहीं थे. वर्तमान शिक्षण व्यवस्था में जो व्यापक संशोधन और सुधार उस मे सुझाये गए है उसका कोई भी कारण नहीं दिया गया था. विभिन्न क्षेत्रों में वर्तमान प्रणाली के साथ क्या गलत है, इसके विस्तृत अध्ययन और विश्लेषण की पेशकश करने में वह मसौदा पूर्ण रूप से विफल था. राष्ट्र के लिए नीति निर्माण में तर्क और वैज्ञानिक सोच की संवैधानिक भावना को ही इस मसौदे ने नकार दिया था.

जो शिक्षा नीति अब 29 जुलाई 2020 को केंद्रीय मंत्री मण्डल ने मंजूर की है वह 2019 के मसौदे की तर्ज पर ही है. उस में सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों की आवश्यकताओं को देखते हुए कोई ईमानदार प्रावधान नहीं है. संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के हित की बात की गई है. लेकिन सरकार द्वारा मंजूर शिक्षा नीति में इससे किनारा करते हुए एक नई संकल्पना ईजाद कर दी.  

2019 के मसौदे में उसे अल्प प्रतिनिधित्व वाले समूह (Under Represented Groups/URG) कहा गया था. अंतिम स्वीकृत शिक्षा नीति में उन्हे सामाजिक और आर्थिक रूप से वंचित समूह (Socially and Economically Disadvantaged Groups/SEDG) नाम दे दिया गया है. आप कह ही नहीं सकते कि नाम में क्या रखा है?’ 

URG हो या अब नया नाम SEDG हो, यह परिभाषा सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन की संकल्पना पर निर्भर करती है, जो कि संवैधानिक परिभाषा के विपरीत है. विडंबना यह है कि शिक्षा पर नीति के मसौदे में न तो देश में प्रचलित शैक्षणिक पिछड़ेपन के बारे में कोई आंकड़ा है, ना ही कोई विश्लेषण. राष्ट्रीय शिक्षा नीति में संविधान मान्य सामाजिक और शैक्षणिक रूप से वंचित समूह की बात क्यों नहीं है, यह एक गूढ़ प्रश्न है. 

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सरकार द्वारा मंजूर शिक्षा नीति संवैधानिक मूल्य जैसे की समता, स्वातंत्र्य, न्याय और बंधुभाव, की बात तो करती है, लेकिन उन्हे वास्तव रूप देने के लिए जो संवैधानिक उपाय है उनका जिक्र तक नहीं करती. इसीलिए, पूरी राष्ट्रीय शिक्षा नीति में आरक्षण इस शब्द का उल्लेख ही नहीं है. आरक्षण को लेकर मोदी सरकार कि नियत तो सभी को पता है। लेकिन राष्ट्रीय नीति नियोजन में संविधान में दिये गए स्पष्ट दिशा-निर्देशों को इस तरह पूर्णतः नजर अंदाज करना कहां तक उचित है? 

सरकार को यह बात समझ लेनी चाहिए कि सामाजिक-शैक्षणिक रूप से पिछड़े परिवार के बच्चों को शिक्षा का वह माहौल कभी नहीं मिल सकता जो गरीब किन्तु शिक्षित परिवार के बच्चों को मिलता है. ऐसे में शैक्षणिक रूप से पिछड़े परिवार के बच्चों कि प्रतिभा को पहचानने के लिए आरक्षण के माध्यम से संतुलन-समभाव (माडरेशन) साधना ही होगा. सरकार को चाहिए कि वह राष्ट्रीय शिक्षा नीति में आरक्षण व्यवस्था बहाल करें, वैसा स्पष्ट उल्लेख उसमे आने दें. 

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Author – Harishchandra Sukhdeve

The author has written a book named “Making of the Dome of Dignity: Deekshabhoomi”. You can get this book from Amazon.

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