अपनी अलग पहचान और प्रतिक ढूंढ़ती शूद्र-OBC (मराठा, जाट, गुज्जर, पटेल, आदि) जातियाँ
भारत की कुछ मज़बूत और बड़ी शूद्र-OBC (मराठा, जाट, गुज्जर, पटेल, यादव, आदि) जातियाँ अब ब्राह्मणवाद से अलग, अपनी एक स्वतंत्र पहचान और प्रतिक ढूंढ़ने की प्रक्रिया से गुजर रही हैं।
आधुनिक भारत में ब्राह्मणवाद विरोधी आंदोलन की शुरुआत 1848 में राष्ट्रपिता महात्मा जोतीराव फुले से हुई, जो की खुद शूद्र(OBC) समाज की “माली”(सैनी) जाती से थे। उनके बाद मराठा छत्रपति शाहू जी महाराज ने इसकी कमान संभाली। लेकिन जैसे ही नेतृत्व बाबासाहब अम्बेडकर के हाथों में आया, यह शूद्र-OBC जातियाँ; इस आंदोलन से दूर होती गयीं और दुबारा ब्राह्मणवाद के जाल में फसीं।
जहां धार्मिक क्षेत्र में इनके प्रतिक सवर्ण देवी-देवता, भगवान रहे; वहीं राजनीति में भी इनकी अगवाई सवर्णों के हाथों में रही। महाराष्ट्र के मराठा शायद इसका एक अपवाद रहे हों, जहां उन्होंने छत्रपति शिवाजी महाराज, शिव सेना और बाल ठाकरे के रूप में अपनी अलग सामाजिक-राजनीतिक पहचान बनाई। लेकिन उत्तर भारत के जाट -यादव हों या गुजरात के पटेल; इन जातियों में कई मज़बूत राजनेता तो उभरे, लेकिन उनके आदर्श सवर्ण ही रहें। जय प्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया, मोहन दास गाँधी, पंडित जवाहरलाल नेहरू; इसकी मिसाल हैं।
आज ब्राह्मणवाद, जिस तरह RSS-BJP के नए रूप में उभरा है, उसमें इन जातियों का भारी इस्तेमाल हुआ। लेकिन RSS-BJP के निचले स्तर से लेकर शीर्ष तक और शाषन-प्रसाषन में आज सिर्फ सवर्णों(ब्राह्मण-बनिया-ठाकुर) और उसमें भी खासकर ब्राह्मणों का कब्ज़ा है। OBC-शूद्र जातियाँ अब अपने आप को ठगा महसूस कर रहीं हैं।
आखिरकार इनमें एक नई चेतना उभर रही है कि इन्हें अपने वर्ग से ही धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक प्रतीकों को उभारना होगा ताकि ब्राह्मणवाद से अलग, एक स्वतन्त्र पहचान बन सके।
इन जातियों में महापुरुषों की कोई कमी नहीं है। साहब कांशी राम ने जब “बहुजन आंदोलन” की नींव रखी, तो मुख्य तौर पर उन्होंने पांच महापुरुषों को अपनाया। महात्मा जोतीराव फुले, छत्रपति शाहू जी महाराज, नारायणा गुरु, पेरियार रामास्वामी नायकर और बाबासाहब अम्बेडकर। बाबासाहब को छोड़ बाकी सभी महापुरुष शूद्र-OBC जातियों से ही थे।
इसके अलावा; जाटों में सम्राट हर्षवर्धन, राजा सूरज मल, सर छोटू राम; यादवों में पेरियार ललई सिंह यादव; कुर्मियों में राम स्वरूप वर्मा; कुशवाहा जाती में बाबू जगदेव प्रसाद; जैसे और अनेकों उदाहरण हैं। इनमें से कई का संघर्ष ब्राह्मणवाद के विरोध में रहा है और उनकी विचारधारा फुले-शाहू-अम्बेडकर के करीब है न कि “मंदिर वहीं बनाएंगे और ब्राह्मण पंडितजी को बैठाएंगे” वाली विचारधारा के।
इस सामाजिक-राजनीतिक उथल-पुथल के साथ धर्म का सवाल भी उभर रहा है।
यह बहस सभी OBC-शूद्र जातियों में तो नहीं, लेकिन “जाटों” सहित कुछ जातियों में जरूर छिड़ गयी लगती है। कुछ “जाटों” का मानना है कि उन्हें “सिख धर्म” अपना लेना चाहिए और एक युवा जाट नेता ने हाल ही में इस ओर कदम बढ़ाया। एक और वीडियो वायरल हुआ, जिसमें एक जाट नेता “बौद्ध धर्म” अपनाने की बात कर रहे हैं। वो सम्राट हर्षवर्धन को जाट बताते हुए कहते हैं कि “जाट” जाती तो सदा “बौद्ध” रही है।
पेरियार ललई सिंह यादव का बौद्ध धर्म अपनाना, शाक्य-मौर्यों का इस ओर झुकाव; OBC जातियों में धर्म के सवाल पर छिड़ी इस बहस की ओर साफ इशारा करता है।
अगर इन जातियों ने अपने को सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्र में स्वतंत्र रूप से स्थापित कर भी लिया, लेकिन धर्म के मामले में यह फिर ब्राह्मण(हिन्दू) धर्म से ही जुड़ी रहीं, तो ब्राह्मणवाद इन पर हावी ही रहेगा।
यह जातियाँ कितनी सफल होती हैं, वो तो समय ही बताएगा। लेकिन आज ब्राह्मणवाद और RSS-BJP, जिस वर्ग पर अपनी ईमारत टिकाये हुए है, उसकी बुनियाद हिलने जरूर लगी है।
सतविंदर मदारा
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