डॉ बाबासाहेब आंबेडकर द्वारा मूकनायक के लिए 4 फरवरी, 1920 को लिखा गया दूसरा संपादकीय
*स्वराज्य की बराबरी सुराज्य नहीं कर सकता है*
(डॉ बाबासाहेब आंबेडकर द्वारा मूकनायक के लिए 4 फरवरी, 1920 को लिखा गया दूसरा संपादकीय)
आज तक ज्ञात भूगोल की ओर राजनैतिक दृष्टि से देखने पर हम देशों को दो भागों में बांट सकते हैं। जिसमें पहले स्वयं शासित देश, तो दूसरे परशासित देश।
स्वयं शासित देश का कारोबार उस देश में रहने वाले लोगों की और होता है, जबकि पर शासित देश की स्थिति वैसी नहीं होती है। उस देश का कारोबार विदेशी लोगों के हाथों में होता है, इस वर्गीकरण में हिंदुस्तान देश का समावेश होता है।
इस देश में हिंदू, मुसलमान, पारसी आदि लोग रहते हैं फिर भी उन्हें सामान्य तौर पर हिंदी लोग इसी नाम से संबोधित किया जाएगा| परंतु हिंदी लोगों पर राज्य शासन करने वाले लोग हिंदी नहीं है। तात्पर्य यही है कि हिंदी लोग स्वयं शासित नहीं हैं।
बहुत समय से हिंदुस्तान पर विदेशी सत्ता है। इस सुसंपन्न देश पर अपना आधिपत्य जमाने के लिए अनेक पाश्चात्य देशों ने प्रयत्न किया। रोमन तथा ग्रीक लोगों ने भी प्रयत्न किया परंतु वह विफल हुआ। किंतु मुसलमानों द्वारा किये प्रयत्न को सफलता मिली। यद्यपि मुसलमानों के आक्रमण की शुरुआत सन 986 से हुई परंतु उन्हें इस देश में स्थायित्व हेतू बहुत समय लगा। पृथ्वीराज की 1193 के युद्ध में जब मृत्यु हुई, तब हिंदू बादशाही का दिल्ली का तख्त खाली पड़ा था, परंतु पठानों ने तख्त पर अधिकार जमाया।
1526 को पानीपत के युद्ध में मुगलों के अधिपति बाबर ने दिल्ली पर कब्जा कर हिंदुस्तान की बादशाहत हासिल की।
परंतु 200 वर्षों के अंदर ही मुसलमानों की सार्वभौम सत्ता का अंत करीब आने लगा। कुछ समय तक सत्ता दक्षिण के मराठों के पास रही परंतु वह अंत में हमेशा के लिए अंग्रेजों के पास चली गई तथा वह सत्ता आज तक अबाधित है। इस प्रकार इस देश के गुलामी की यह पूर्व पूर्व पीठिका है।
राजनीति के सामान्यतः दो उद्देश्य होते हैं, जिसमें पहला शासन तथा दूसरा संस्कृति होता है।
*शासन* से तात्पर्य है अनुशासन, यानी शांति बनाए रखना।शांति का भंग दो तरह से हो सकता है। पहला कारण है विदेशी आक्रमण से तथा दूसरा है आंतरिक कलह के परिणाम स्वरूप।
विदेशी आक्रमण यदा-कदा होता है किंतु आंतरिक व्यवस्था, शांति बनाए रखना यही शासन का मुख्य काम होता है।
कोई भी राष्ट्र हो वहां पर वर्ग तथा गुटबन्दी रहती है। इतना ही नहीं तो वर्ग-वर्ग में तथा व्यक्तियों में सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक तथा धार्मिक परस्पर विरोधी हित संबंध रहते हैं। ऐसे विरोध के कारण व्यक्ति ने अथवा वर्ग ने अपना स्वार्थ साधने के लिए दूसरे व्यक्ति अथवा वर्ग का अहित करने का कार्य करने पर अंतर्गत शांति भंग होने की संभावना रहती हैं।
तब शांति के अभाव में सामाजिक जीवन का खतरा उत्पन्न होता है व मानवीय सहजीवन समाप्त हो जाता है। ऐसे समय शासन का भले ही महत्वपूर्ण उद्देश्य हो, परंतु प्रजा को यह कहना कि तुम यह काम मत करो अन्यथा शांति भंग करने पर दंडित किया जाएगा। वर्तमान में ऐसा आदेश देने वाली राज्य प्रणाली को जंगली ही कहा जाएगा।
प्रगतिशील राष्ट्रों की राज्य प्रणाली का झुकाव जितना शासन की ओर होता है, उतना ही वह संस्कृति की ओर भी होता है। इससे भी कहीं अधिक इन राष्ट्रों का झुका इस और होता है कि प्रजा की अधिकाधिक उन्नति कैसे होगी? इसके लिए नियोजन करना, उसके लिए संसाधन उपलब्ध करना, उन्नति हेतु अनुकूल वातावरण पैदा करना आदि राष्ट्र का दूसरा महत्वपूर्ण उद्देश्य हो गया है।
राजनीति के दो उद्देश्य परिस्थिति अनुरूप अलग-अलग स्थानों पर भिन्न-भिन्न प्रमाणों में क्रियान्वित होते हैं। जहां राज कारोबार एक विशिष्ट वर्ग के हित में होने लगता है, फिर वह अपने ही लोगों का हो या फिर विदेशियों का हो? वहां संस्कृति से अधिक शासन की ही प्रधानता होती है। वजह यह है कि शांति भंग होने पर उनकी सत्ता को खतरा पैदा हो जाता है। शांति तो अति आवश्यक है, किंतु शांति के नाम पर फिर अत्याचार सहजता से होने लगता है। कारण शांति बनाए रखने के लिए फिर किसी भी स्वतंत्रता पर बंधन लगाना पड़ता है। व्यक्ति की स्वतंत्रता पर कब बंधन डालें अथवा कब ना डालें? इसका निर्णय करते समय स्वतंत्रता को यथावत बनाए रखते हुए उसका पर्यावसन स्वच्छंदता में न हो, इसकी खबरदारी रखना अति आवश्यक है दरअसल यह बहुत ही नाजुक काम है। बहुत बार स्वतंत्रता की उच्छृंखलता को रोकने के लिए स्वतंत्रता की ही बलि दी जाती है। स्वतंत्रता के समाप्त होने पर शांति बनी रहती है, किंतु व्यक्ति का विकास नहीं हो पाता है। अतः शासन के अति से यह हानि होती है।
दूसरा आरोप यह है कि विदेशी राज्यकर्ता अपने जातिभाइयों का हित साधने के लिए प्रजा के हितों की अनदेखी करते हैं। इतना ही नहीं तो प्रजा के हितों की आहुति देते हैं। फलत: किसी देश की दूसरे देश पर सत्ता होने से आम जनता को लाभ शायद ही मिल पाता है। इस बात से सभी विद्वान सहमत हैं। परंतु हिंदुस्तान पर अंग्रेजी सत्ता का शासन इस संदर्भ में अपवाद ही कहा जाएगा। इस कथन में कोई संदेह नहीं है। इस हिंदुस्तान में अनेक विदेशी आक्रमणकारियों ने आकर यहां की जनता को त्राहि-त्राहि किया। इससे अनेक राजनीतिक विद्रोहों के कारण प्रजा के लिए शांति बहुत ही दुर्लभ चीज हो गई थी। ऐसे परेशान देश को ब्रिटिश सत्ता के कारण जिस शांति का लाभ मिला, क्या उसे बेकार कहा जा सकता है? उसी भांति जिस हिंदुस्तान का संस्कृति की दृष्टि से जंगली लोगों में प्रथम क्रमांक लगा होता या फिर प्रगतिशील राष्ट्रों की सूची में अंतिम क्रमांक लगा होता। यह देश नए से स्थापित हो रहे राष्ट्र संघ में शामिल होने के क्या लायक हुआ होता? अंग्रेजी साम्राज्य में देश की सांस्कृतिक वृद्धि को क्या कम आंका जाएगा? क्या यह कथन सत्य की कसौटी पर किया जाएगा? यदि स्वदेशियों की सत्ता के दौरान प्रजा संतुष्ट नहीं रहती है, तब विदेशियों के साम्राज्य में यदि जनता असंतुष्ट रहती है फिर इसमें आश्चर्य कैसा? यदि विदेशी सत्ता हितकारी भी रही, किंतु वह विदेशी है इसलिए परतंत्रता की जंजीरों में बंधे होने के कारण लोगों का ध्यान हमेशा सत्ता की बागडोर संभालने वालों की गलतियों की और ही होता है। इसी आधार पर आज अंग्रेजी सत्ता के विरोध में आंदोलन चल रहा है। इस आंदोलन की मूल में जो बात है उसका विश्लेषण करना अति आवश्यक है।
राष्ट्रीय सभा जिला कांग्रेस का कथन है कि वह इस आंदोलन की जननी है, इस सभा का आयोजन प्रति वर्ष होता है। इसका 34 वां अधिवेशन पिछले दिसंबर में अमृतसर शहर में आयोजित किया गया था। यह राष्ट्रीय सभा सन 1885 में अस्तित्व में आई तथा इसके अस्तित्व में आने के कारण एकदम स्वाभाविक थे। किसी भी देश को अपनी वास्तविक स्थिति क्या है? यह उसे समझना है। हम धनी हैं या गरीब हैं, हम अच्छे हैं या बुरे हैं, हम ज्ञानवान हैं या ज्ञान हीन हैं, हम गौर वर्णय हैं या कृष्ण वर्णय। यह सब दूसरों पर नजर डाले बिना समझता नहीं है। उसी भांति एक राष्ट्र को दूसरे राष्ट्रों की ओर देखकर ही ज्ञात होता है कि वह विकसित है या पिछड़ा है? इसके लिए उसे दूसरे राष्ट्रों का अध्ययन करना होना, आवागमन के साधनों की जानकारी प्राप्त करनी होगी। इसके बगैर किसी अकेले राष्ट्र को तुलना के अभाव में अपनी स्थिति उत्कृष्ट है या निकृष्ट है? यह समझ में नहीं आएगी तथा वह अपनी ही दयनीय अवस्था में पड़ा रहेगा।
इस दृष्टि से यहां के लोगों को अपनी वास्तविक स्थिति का सापेक्ष व तुलनात्मक आकलन होने हेतु हिंदुस्तान तथा अंग्रेजों का, प्रजा व राजा के नाते आया हुआ निकट संबंध बहुत महत्वपूर्ण है। *अंग्रेजी विद्या* यानी ‘शेरनी का दूध’ है, इसे जिसने पी लिया उसमें नया उत्साह, नया तेज़, नई स्फूर्ति पैदा होगी। जिसने इस अंग्रेजी विद्या को प्राप्त किया उसके यूरोपियन देशों के इतिहास का अध्ययन कर अनियंत्रित राजसत्ता के क्या नुकसान हैं? इसे भली-भांति जाना है। व उसके मन में स्वतंत्रता की कल्पना ने प्रवेश किया है। अंग्रेजी विद्या के प्रभाव से उन्हें राजा तथा प्रजा के अधिकार समझने लगे हैं। इस शेरनी का दूध पीकर इन बच्चों ने अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध प्रजा दल की ओर से संघर्ष को प्रारंभ किया है।
अंग्रेजी राज्य यद्यपि विदेशी लोगों का राज्य है, फिर भी कुछ अधिकारियों को छोड़ दिया जाए तो शेष अधिकारियों ने प्रजा दल की सभाओं के प्रति अपनी सहानुभूति दिखाई है। इतना ही नहीं तो स्वयं हिंदुस्तान के भूतपूर्व गवर्नर जनरल लॉर्ड डफरिन ने प्रजा दल के निर्माण में मदद की है। उन्होंने अपनी सहानुभूति केवल शब्दों में व्यक्त न करते हुए उसकी मांग के अनुसार अपनी राज्य व्यवस्था में सुधार करने को आगे-पीछे नहीं देखा है। यह बात उनके लिए बहुत गौरवास्पद है। इस प्रजा दल की निर्मिति से ब्रिटिश सरकार ने शिक्षा के संदर्भ में उदार नीति का अवलंब किया है। प्राथमिक शिक्षा को निशुल्क तथा अनिवार्य घोषित किया है। स्वास्थ्य के संदर्भ में सरकार की ओर से उचित अनुपात में राशि खर्च की जा रही है। शराब जैसे मादक पदार्थ पर अधिक कर लगाकर, शराब के व्यसनाधीनों पर रोक, शराब की दुकानें बंद तथा शराब बिक्री को नियंत्रित किया जा रहा है।
लोगों की शिकायतें सुनकर सरकार उन्हें चारे की तथा जलाऊ लकड़ियों की सुविधा दे रही है। नमक पर कर को कम किया गया है। आयकर की सीमा बढ़ाई गई है। पुलिस विभाग में वरिष्ठ तथा कनिष्ठ पदों पर एवं सेना के वरिष्ठ पदों पर इस देश के लोगों को नियुक्त किया जा रहा है। राजस्व, शिक्षा आदि विभागों के उच्च पदों की नौकरियां इनको मिलने चाहिए, ऐसा प्रावधान किया गया है। कृषि सुधार उसी भांति वित्तीय सरकार सहकारी वित्तीय संस्थाओं की स्थापना सरकार तीव्र गति से कर रही है। इतना ही नहीं तो जनता में से योग्य तथा जिम्मेदार व्यक्तियों को प्रांतीय तथा उच्च सदन (कानून मंडल) में लेकर उनकी सलाह से कानून बनाए जा रहे हैं। प्रजा दल के लोगों को कानून मंडल में लेने की पद्धति में सरकार ने उदार नीति का पालन किया है। पहली बार 1861 में जब प्रजादल के लोगों को कानून मंडल में लेने के तत्व को जबसे मान्यता प्रदान की गई, तबसे 1892 तक सरकारी चुनावों में जनता में से किस व्यक्ति को लिया जाए? यह सब सरकार की मर्जी पर अवलंबित था। परंतु सरकार द्वारा चुना गया सदस्य प्रजा के हित के लिए ही काम करेगा, ऐसा नहीं होता था। बहुदा वह सदस्य जी-हुजूरी करने वाला ही होता था। कानून मंडल में अपनी सीट सुरक्षित रखने के लिए प्रजादल सरकार की मर्जी रखने के लिए स्वार्थ हेतु सदस्य की आहुति देता था। सरकार द्वारा नियुक्त सदस्य जी हुजूरी करते हैं, वह जनता के हितकारी नहीं है। ऐसी आलोचना होने पर सरकार ने नियुक्ति के स्थान पर चुनाव प्रणाली के तत्व को लागू किया है। कुल मिलाकर ब्रिटिश राज्य प्रणाली का झुकाव अनेक वर्षों से सुराज्य प्रणाली की ओर है, इस बात को उनका घोर विरोधी भी कबूल करेगा।
प्रजादल की राष्ट्रीय सभा का जन्म ब्रिटिश राज्य प्रणाली को सुराज्य प्रणाली बनाने हेतु हुआ है। यदि यह बात सत्य है, तब फिर ऊपर हुए सुधारों को देखकर उसे समाधानी होना चाहिए। परंतु उसका समाधान न होते हुए उसके असंतोष में ही वृद्धि हुई है। इसका प्रमुख कारण यह है कि राष्ट्रीय सभा के उद्देश्य में ही अब बदलाव हो गया है।अब उसे सुराज्य नहीं चाहिए।
वरन “स्वराज्य की बराबरी सुराज्य नहीं कर सकता है” इस नए सिद्धांत की ओर दल आकर्षित हुआ है। किसी सिद्धांत पर आक्षेप नहीं है, किंतु व्यवहारिक दृष्टि से देखा जाए तो *सिद्धांत से कहीं अधिक व्यवहार श्रेष्ठ है* । स्वराज्य किसका व किस लिए? यह समझे बगैर इस तत्व का समर्थन नहीं किया जा सकता है। यदि कोई इसका समर्थन करना चाहता है, तो वह फिर वह करें।
From – Dr. Sunil Kumar
आज के समय मे हिन्दू मुस्लिम करके भजपा और आरएसएस ने sc, st, obc के लिए जो संघर्ष हो रहा था।उसको लगभग नष्ट कर दिया है।अब फिर से इन सूद्र जातियों को किस प्रकार इकठ्ठा करके संघर्ष किया जाय इस पर इन जातियों के विद्वानो को नेताओं को विचार करना चाहिए।अभी के समय में इन जातियों के नेता लोग bjp rss का एजेंडा ही चलाता नजर आ रहा है।जो कि पूर्ण रूप से मनुवादी व्यवस्था का पुनः आगमन प्रतीत होता है।
शिव