भीमराव अंबेडकर, अमेरिका जुलाई 1913
जुलाई के इस तीसरे सप्ताह में विश्वविद्यालय में गर्मी और उमस से भरी हवाएं बह रही हैं. साल के सबसे गर्म महीने में वृक्षों से गिरती असंख्य रंग बिरंगी पत्तियों ने विश्वविद्यालय की धरती को आच्छादित कर लिया है. विश्वविद्यालय के अलग अलग विभागों, कक्षाओं और छात्रावासो को जोड़ रही सभी गलियों और मार्गों पर ये पत्तियाँ फ़ैल गयी हैं. इनके बीच से रास्ता बनाते हुए सैकड़ों छात्र अध्यापक और शोधकर्ता अपनी अपनी मंजिलों को तलाश रहे हैं.
अनेक देशों के छात्र अपने मन में अपने देशों और समाजों के जीवन की स्मृतियां लिए ज्ञान की तलाश में यहाँ आये हैं. एक नयी आजादी और नए अवसरों की भूमि पर पहुंचकर सभी के मन प्रफुल्लित हैं. उनके मन नए जीवन की नयी कल्पना से रोमांचित हैं. अपनी अलग अलग भाषाओँ और वेशभूषाओं के साथ सभी छात्र नए मित्रों को तलाश रहे हैं. टूटी फूटी इंग्लिश और इशारों से संवाद करते हुए वे एक दूसरे से परिचित हो रहे हैं. यूरोप के देशों से और अमेरिका के अन्य हिस्सों से आने वाले अनेकों छात्र इस नगर की आबोहवा और जीवन शैली से या तो परिचित हैं, या फिर इसे अपने लिए मुफीद पा रहे हैं.
यहाँ का मौसम यहाँ का भोजन और रहन सहन उनके अपने समाज से अधिक भिन्न नहीं है. इनमे से कई हैं जो बहुत संपन्न परिवारों से आ रहे हैं. उनके लिए यह एक अवसर से दुसरे बड़े अवसर की तरफ स्वाभाविक छलांग है जो उन्हें उनके सपनों को पूरा करने के लिए साधन बनेगा.
लेकिन इनके बीच एक भारतीय छात्र भी है जो पहली बार अपने देश को छोड़कर इतनी दूर और एकदम नए समाज में आया है. उसके लिए यह यात्रा अपने सपनों को पूरा करने की यात्रा नहीं है. इन गलियों में रास्ता तलाशते हुए वह अपने लिए नहीं बल्कि अपनी खो चुकी विराट संस्कृति के लिए रास्ता बना रहा है. ज्ञान की दिशा में उठ रहा उसका एक एक कदम उसके पद-दलित समाज की अभीप्साओं के लिए एक नयी छलांग बनता जा रहा है. एक आहत और पीड़ित मन में अपने अपमान और पीड़ाओ का बोझ लिए और हजारों नए प्रश्न और योजनायें लिए यह छात्र अपने कमरे की तरफ बढ़ रहा है. इन गलियों में चलते हुए वह गरीब भारतीय छात्र कुछ शर्माते सकुचाते हुए चला जा रहा है.
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कई अनजान यूरोपीय और अमेरिकी छात्र छात्राएं उसे उन गलियों में मिल रहे हैं. एक स्वाभाविक शिष्टाचार के नाते हर कोई एकदूसरे को हेलो बोल रहा है और मुस्कुराकर परिचय और मैत्री का पुल बनाने की कोशिश कर रहा है. अचानक यह भारतीय छात्र महसूस करता है कि भारत के पढ़े लिखे और संभ्रांत लोगों के विपरीत यहाँ के सुशिक्षित लोग और अन्य छात्र उसे कहीं अधिक खुले विचारों के और मैत्रिपूर्ण हैं. यह उसके लिए एक आश्चर्य की बात थी, भारत में उसके अपने ही देश और नगर के लोग उसे एक अछूत से अधिक कुछ नहीं समझते हैं लेकिन यहाँ इस विश्वविद्यालय में न सिर्फ काली या पीली चमड़ी के लोग बल्कि गोरे लोग भी उससे सौहार्द्र और मैत्रीपूर्वक मिल रहे हैं.
अमेरिका से इस पहली ही मुलाक़ात ने एक अस्त हो चुकी सभ्यता और एक उदय हो रही सभ्यता के दो विपरीत छोरों के बीच एक तीखी विभाजक रेखा खींच दी. वह गरीब और अछूत भारतीय छात्र इस रेखा के एक तरफ भयानक सडन और पतन के शिकार भारत के बर्बर समाज को देख रहा है और दुसरी तरफ एक नयी संस्कृति में पल रहे सभ्य समाज को देख रहा है. इस अंतर को देखकर वह आश्चर्यचकित है. इस आश्चर्य के साथ उसके मन में एक छुपा हुआ सा आश्वासन भी उभर रहा है. भारत के असभ्य समाज में फ़ैली बर्बरता और अन्धकार को इस नयी दुनिया के नए प्रकाश से बुहार देने की उसकी योजना यहीं से आकार लेने लगती है.
यह युवक भीमराव अंबेडकर है!
भीमराव रामजी अंबेडकर भारत का एक गरीब छात्र है जो अपने देश में अछूत माना जाता है. ब्रिटिश सेना में छोटी सी नौकरी कर रहे एक गरीब सूबेदार के घर भीमराव का जन्म हुआ है. इस गरीब लेकिन मेधावी छात्र ने अपने जन्म से लेकर अभी तक की यात्रा में सिर्फ अपमान और भेदभाव ही सहा है. उसकी अपनी बुद्धिमत्ता, शिक्षा और शिष्टाचार का उसके अपने ही देश में कोई मूल्य नहीं है.
जब वह भारत में अपनी ही मातृभूमि पर अपने नगर की गलियों में चलता है तो उसे सहम जाना होता है कि कहीं किसी ऊँची जाति के हिन्दू का शरीर उसके स्पर्श से अपवित्र न हो जाए. उसे हिन्दुओं से एक ख़ास दूरी बनाये रखने को कहा जाता है. इस तरह वह न केवल अपने प्रति संभावित हिंसा और अपमान से बचता है बल्कि इसी उपाय से वह ऊँची जाति के हिन्दुओं के धर्म की पवित्रता की रक्षा भी करता है. इस प्रकार भीमराव को अपने हर एक कदम पर अपनी रक्षा और ऊँची जातियों के धर्म की पवित्रता की रक्षा का बोझ लिए चलना होता है. इतने बोझ को लेकर वह और उसका समाज भारत की भूमि पर एक लंबी यात्रा नहीं कर पा रहा है.
Author — संजय श्रमण
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