मान्यवर कांशीराम – बामसेफ से बसपा तक का सफर


कांशीराम साहेब का जन्म पंजाब के रोपड़ जिले में ख्वासपुर गांव में 15 मार्च, 1934 में रामदासिया चमार जाति में हुआ था। उनका बचपन अपने गांव ख्वासपुर में ही बीता और वहीं उनकी प्राथमिक शिक्षा पूरी हुई। 1956 में उन्होंने रोपड़ आकर बी.एस.सी. की परीक्षा उत्तीर्ण की।

1957 में उन्होंने “सर्वे ऑफ इंडिया” की प्रतियोगात्मक परीक्षा पास की और प्रशिक्षण के लिए चले गए। लेकिन प्रशिक्षण के दौरान उनसे सर्विस बॉन्ड भरने को कहा गया तो उन्होंने नौकरी छोड़ दी। इसके बाद वे पूना के रक्षा विज्ञान एवं अनुसंधान विकास संस्थान की “एक्सप्लोसिव रिसर्च लेबोरेटरी” में अनुसंधान सहायक पद पर कार्यरत हो गए। इसी दौरान कांशीराम जी के साथ ऐसी घटना घटित हुई जिसने पंजाब के इस नव युवक की दिशा ही पलट कर रख दी।

दरअसल हुआ यह कि पूना के रक्षा अनुसंधान संस्थान में बुद्ध जयंती और अंबेडकर जयंती के दो अवकाशों को समाप्त कर प्रशासन ने एक अवकाश दिवाली की छुट्टियों में समायोजित कर दिया और अंबेडकर जयंती के स्थान पर तिलक जयंती की छुट्टी घोषित कर दी गई। प्रयोगशाला के वर्क्स कमेटी के एक अनुसूचित जाति के कर्मचारी “मान्यवर दीनाभाना” ने इसका ओजपूर्ण विरोध किया, तो उन्हें निलंबित कर दिया। इस घटना ने कांशीराम जी को झकझोर कर रख दिया और उनके मन में डॉ. अंबेडकर के बारे में जानने की इच्छा प्रकट हुई, जिनके लिए दीनाभाना जी ने अपनी नौकरी तक की परवाह नहीं की।

दीनाभाना जी व उनके सहयोगी “डी.के. खापर्डे जी” से कांशीराम जी की मुलाकात हुई। खापर्डे जी ने कांशीराम जी को डॉ. अंबेडकर द्वारा रचित “एनिहिलेशन ऑफ कास्ट” पुस्तक को पढ़ने के लिए दी। कांशीराम जी इस किताब को पढ़कर बाबासाहेब डॉ. अंबेडकर से बहुत ज्यादा प्रभावित हुए और उन्होंने समझ लिया कि “जाति” ही सारी समस्या की जड़ है। इसके बाद कांशीराम जी ने किसी की कोई परवाह किए बगैर नौकरी से निलंबित दीनाभाना जी की कानूनी मदद की और न्यायालय तक ले गए, जहाँ उनकी जीत हुई। दीनाभाना जी को वापस लिया गया और बुद्ध जयंती की छुट्टी भी बहाल हुई।

इसके बाद भी कांशीराम जी चैन से नहीं बैठे। उन्होंने इस मामले में गहराई तक जाने का फैसला किया और ब्राह्मणवादी सामाजिक व्यवस्था को नष्ट कर बहुजन समाज की मुक्ति को अपने जीवन का ध्येय बना लिया। उसके बाद कांशीराम जी 1964 में अपनी नौकरी छोड़ पूरी तरह सामाजिक एवं राजनीतिक बदलाव के लिए समर्पित हो गए। उन्होंने अपने पारिवारिक दायित्वों से मुक्ति पाने के लिए आजीवन अविवाहित रहने का निश्चय भी ले लिया। कांशीराम जी ने अपने घरवालों को एक खत भेजा जिसमें साफ लिखा था –

“जबतक बाबासाहेब का सपना पूरा नहीं हो जाता, चैन से नहीं बैठूंगा”

कांशीराम जी कुछ समय के लिए “रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इण्डिया” से भी जुड़े रहे पर वहाँ उनका शीघ्र ही मोहभंग हो गया और उससे नाता तोड़ लिया। इसके बाद कांशीराम जी बहुजन समाज को संगठित करने के लिए जुट गए और 6 दिसम्बर, 1978 को उन्होंने अनुसूचित जाति/जनजाति, पिछड़े वर्ग और अल्पसंख्यक समुदाय के कर्मचारियों को संगठित करने के लिए “बामसेफ” की स्थापना की, जिसमें उन्हें आशातीत सफलता मिली और लगभग दो लाख कर्मचारी बामसेफ के सदस्य बन गए थे। इसमें 3000 से ज्यादा डॉक्टर, 15000 वैज्ञानिक, 70000 स्नातक और लगभग 500 डॉक्ट्रेट की उपाधि वाले सदस्य शामिल हुए।

बामसेफ के माध्यम से कांशीराम जी ने कार्यकर्ताओं की फौज और आर्थिक संसाधन तो जुटा लिए, लेकिन अपने आंदोलन के विस्तार के लिए जन संगठन की जरूरत थी जो बहुजन समाज पर होने वाले अत्याचारों के खिलाफ मुखर प्रतिरोध कर सके और सदियों से दबे-कुचले, मानसिक हीनता से ग्रस्त लोगों को अपनी सामाजिक हैसियत बदलने के लिए खड़ा कर सके। इस काम के लिए कांशीराम जी को बामसेफ अपर्याप्त लगा, क्योंकि उसकी अपनी सीमाएं थीं। इसलिए उन्होंने 6 दिसम्बर, 1981 को “डीएस4” का गठन किया।

डीएस4 की सदस्यता सभी बहुजन समाज के लोगों के लिए खुली हुई थी, प्रारम्भ में बामसेफ के सदस्यों ने अपने परिजनों, रिस्तेदारों और मित्रों को इसकी सदस्यता दिलवाई। इस संगठन का उद्देश्य बहुजन समाज के बीच अनेक प्रकार के जाग्रति कार्यक्रम चला कर उन्हें परम्परागत सामाजिक दासता के विरुद्ध संगठित करना था। यह एक राजनीतिक पार्टी नहीं थी, लेकिन इसका उद्देश्य एक राजनीतिक शक्ति का निर्माण करना भी था। बहुजन समाज की चेतना का प्रचार-प्रसार करने के लिए डीएस4 ने साइकिल यात्राओं, जन संसदों, जन सभाओं आदि का आयोजन व्यापक स्तर पर किया।

इन कार्यक्रमों का सिलसिला दक्षिण में कन्याकुमारी, उत्तर में कारगिल, उत्तर पूर्व में कोहिमा, पश्चिम में पोरबंदर और पूर्व में उड़ीसा से शुरु होकर पूरे देश में चलता हुआ दिल्ली में सम्पन्न हुआ। 6 दिसम्बर, 1983 से 15 मार्च, 1984 तक चले इस सौ दिनों के जन जागरण अभियान में लगभग तीन लाख लोगों ने हिस्सा लिया। इसके अलावा डीएस4 ने शराबबंदी के लिए भी आंदोलन चलाया, जहाँ एक तरफ सरकार को दलित बस्तियों से शराब के ठेके हटाने के लिए विवश किया, वहीं साइकिल यात्राओं द्वारा बहुजन समाज के बीच भी शराब से होने वाली सामाजिक और आर्थिक क्षति का प्रचार किया।

बरेली के कटरा चाँद खाँ में शराब भट्टी के खिलाफ डीएस4 के द्वारा किया गया आंदोलन इसका उदाहरण है। कांशीराम जी ने बामसेफ और डीएस4 के द्वारा बहुजन चेतना के विस्तार को राजनीतिक संघर्ष से जोड़ने के लिए 14 अप्रेल, 1984 को “बहुजन समाज पार्टी” का गठन किया। इस प्रकार बहुजन समाज को राजसत्ता पर काबिज करने के लिए “बसपा” के रूप में एक राजनीतिक दल की स्थापना की। कांशीराम जी का मानना था कि “ब्राह्मणवाद” एक मात्र ऐसा “वाद” है जिसमें भारत में पूंजीवाद, समाजवाद, मार्क्सवाद, गांधीवाद आदि सभी वाद विलीन हो जाते हैं।

कांशीराम जी का साफ कहना था कि “ब्राह्मणवादी व्यवस्था” ने अपनी सत्ता को कायम रखने के लिए बहुजन समाज को छः हजार जातियों में विभाजित कर रखा है। इसलिए इस ब्राह्मणवादी व्यवस्था को नष्ट करने के लिए इन छः हजार जातियों का संगठित होना अत्यधिक आवश्यक है। कांशीराम जी ने निश्चित तौर पर बाबासाहेब के धर्मान्तरण का महत्व भी समझ लिया था कि स्थाई रूप से सत्ता पर काबिज बने रहने के लिए धार्मिक व सामाजिक क्रांति लाना बहुत जरूरी है इसलिए उन्होंने सन् 2002 में अपने लाखों-करोड़ों अनुयायियों के साथ 14 अक्टूबर, 2006 को बाबासाहेब के धर्मान्तरण के 50वें वर्ष बौद्ध धर्म अपनाने की घोषणा कर दी, लेकिन वे धर्मान्तरण करते उससे पहले ही 9 अक्टूबर, 2006 को उनका परिनिर्वाण हो गया, जिससे एक बहुत बड़ा बदलाव होने से रह गया। मान्यवर कांशीराम जी के त्याग, मेहनत और उनके संघर्षशील प्रेरणादायी जीवन को भुलाया नहीं जा सकता। बहुजन समाज को उनसे जरूर प्रेरणा लेनी चाहिए।

Author – Satyendra Bauddh

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  1. 1
    DrLaxmi Berwa

    Dear friennd Mr. Satyendra Baudh, you have written a very good historical piece. I salut late honorable Kanshi Ramji who brought a new revolution to the Dalit-Bahujan people. I had good fortune to meet him once in his office in Karol Bagh, New Delhi.I had take a reference of American scholar on Dalit issue Barbara Joshi. Kanshi Ram ji gave me his copy of his book, written in Hindi, titled,” Chamcha Age,” I am sure you all are aware of it.During our conversation, I could see in him great passion for our community.
    Second time I met him was in First World Dalit Conference in Kuala Lumpur, Malaysia.
    He was one of the speaker.
    We about 10-15 attendees met in his room face to face with him and discuss Dalit issue.He was a man with a plan and strategy to gain political power.
    In his later life, he promised to become Buddhist and to convert his follower but unfortunately he passed away.Thus his mission was left for Bahanji Ms. Mayawati to full fill it.She is the heir to late Kanshi Ramji’s legacy and mission.
    Bahanji has been a successful in carrying out the political mission but only recetly she has threatened to “Convert to Buddhism” but has not shown the courage to do. I don’t know her compunction.

    I will ask her a simple question to Ms. Mayawati, will she leave political agenda and a lead a mass acceptance to Buddhism, or carry both on her each shoulder and bring a new revolution.Dr. Ambedar has written from historical perspective that in order to a real political revolution ,there has to be a religious revolution first. How long are we going to live as “Chuhra-Chamar-Mahar”?The so called upper caste have taken the advantage of caste divisions among us, and politicians have taken full advantage in the name of political “representation”.In spite of 70 yrs of so called Representation,Dalits all over the world know the current situation. It is pathetic!
    Will Bahanji rise to the occasion? No body dare to take the advantage of Muslims, Sikhs Jains, Buddhist ,Chritians etc.It is painful to read when a sinle day goes without atrocities on so called Hindu Dalits.Is the reservation big issue in our acceptance of Buddhism? We need to have an open dialogue, we are too much mesmerized in caste politics and our enmies are exploiting to the fullest extent.We are forgetting Dr.Ambedkar’s message.How will the posterity will judge us?

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