ज्योतिबा फुले को याद करते हुए
आज ही के दिन 28 नवम्बर, 1890 को एक महान समाजसेवी बहुजन नायक “ज्योतिबा फुले जी” का देहावसान हुआ था। ज्योतिबा का जन्म “गोविंदराव” और “चिमनाबाई” के यहाँ एक “माली” परिवार में हुआ था। ज्योतिबा महज नौ माह के ही हुए थे कि उनकी माताजी चिमनाबाई का साया उनपर से उठ गया।
ज्योतिबा की मां के निधन के बाद तो गोविंदराव जी के ऊपर पहाड़ सा टूट गया। वे हताष थे। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें क्या न करें…! क्योंकि ज्योतिबा की देख-रेख के चलते वे अपने काम पर भी ध्यान नहीं दे पा रहे थे। तभी “सगुड़ाबाई” जो कि गोविंदराव जी की पत्नी चिमनाबाई की बहन घोंडाबाई की बेटी थीं, उन्होंने ज्योतिबा के लालन-पालन करने की जिम्मेदारी अपने हाथों में ले ली। गोविंदराव जी ने ज्योतिबा को उन्हें सौंप दिया। आगे चलकर यही सगुणाबाई ज्योतिबा और उनकी पत्नी “साबित्रीवाई” की प्रेरणा बनीं।
सगुणाबाई विधवा थीं।…पर वे एक साहसी और संघर्षशील महिला भी थीं। सगुणाबाई जॉन नामक एक मिशनरी व्यक्ति के यहाँ नौकरी करती थीं। वे वहीं मिशनरी के बच्चों की देख-रेख करते हुए अंग्रेजी बोलने और समझने लगी थीं। उन्हीं बच्चों के साथ-साथ ज्योतिबा की भी देख-रेख हुई और ज्योतिबा का भी अंग्रेज बच्चों के साथ रहकर विकास होने लगा।
ज्योतिबा की आयु लगभग 7 वर्ष हो गई तब सगुणाबाई और ज्योतिबा के पिता जी ने उनकी जन्मजात प्रतिभा को देखकर उन्हें पढ़ाने का विचार किया और उन्हें एक मराठी विद्यालय में प्रवेश दिलाया। उस समय सवर्णों की मानसिकता यह थी कि शिक्षित होने का अधिकार केवल सवर्णों का हैं शूद्रों का नहीं। ऐसे समय में ज्योतिबा को पढ़ाने का निश्चय उनके पिता जी के लिए असाधारण था।
कुछ समय बाद ऐसा हुआ कि “नैटिव एज्यूकेशन सोसायटी” के संकेत पर सोसायटी के विद्यालय से छोटी जाति के छात्रों को निकाल दिया गया और ज्योतिबा वापस अपने खेतों में फाबड़ा-खुरपी लेकर लग गए और फूलों के कारोबार को आगे बढ़ाने लगे। ज्योतिबा की आयु जब 13 वर्ष हुई तब उनके पिताजी ने उनका विवाह करवा दिया, उनकी पत्नी का नाम “साबित्रीवाई” था, जो आगे चलकर अपने पति ही की तरह महान समाज सुधारिका बनीं।
ज्योतिबा का विवाह पश्चात भी पुस्तकों से लगाव कम न हुआ था और वे दिन में काम करके रात की रोशनी में पुस्तकें पढ़ते थे। दूसरी तरफ उनकी पढ़ाई बंद हो जाने पर सगुणाबाई भी चिंतित थीं। वे एक बार लिजिट नामक एक ईसाई से मिलीं। वे गोविंदराव जी के एक परिचित मुंशी गफारबेग के मित्र भी थे। सगुणाबाई ने लिजिट से निवेदन किया कि वो मुंशी गफारबेग के साथ जाकर गोविंदराव जी को समझाएं ताकि ज्योतिबा की पढ़ाई फिर से शुरु हो सके। वे दोनों गोविंदराव से मिले और उनसे ज्योतिबा का विद्यालय में दाखिला दिलाने के लिए परामर्श किया और उन्होंने उनका परामर्श स्वीकारते हुए पुन: उन्हें स्कॉटलैंड के मिशन द्वारा संचालित विद्यालय में प्रवेश दिलाया।
उसके बाद ज्योतिबा के साथ एक ऐसी घटना हुई जिसने उनकी जीवन की दिशा ही बदल दी। जब वे अपने एक ब्राह्मण सहपाठी के यहाँ शादी में गए, सभी बाराती सजधज कर चल रहे थे और ज्योतिबा भी उनके साथ चल रहे थे। बारात में सभी सवर्ण थे, उन्हीं सवर्णों में से किसी ने ज्योतिबा को पहचान लिया कि ये तो शूद्र है। वह ज्योतिबा को बहुत डांटने लगा और कहने लगा –
“अरे शूद्र! तूने जातीय व्यवस्था की सारी मर्यादा तोड़ दी….तूने सबको अपमानित किया है, तू जब हमारे बराबर नहीं है तो तुझे ऐसा करने से पहले सौ बार सोचना चाहिए था। तू बारात के पीछे चल या यहाँ से चल जा।”
ज्योतिबा ये सब सुनकर स्तब्ध रह गए। दिमाग शून्य हो गया। जब कुछ देर बाद वो सामान्य हुए तब उन्हें अपने अपमान का एहसास हुआ और उनका खून खोल उठा। ज्योतिबा के आँखो में आंसू थे और उन्हीं आंसुओं के साथ जब वो घर पहुँचे तो उनके पिताजी ने कारण पूछा तब उन्होंने सारी घटना सुनाई। तब उनके पिताजी ने उन्हें वर्णव्यवस्था के बारे में विस्तार से समझाया और कहा –
“अच्छा हुआ केवल तुम्हें वहाँ से उन्होंने भगा दिया…अन्यथा वो तुम्हें मार-पीट भी सकते थे। उनसे लड़ना भी कठिन है, उनके विरोध का विचार छोड़ दे।”
इन सब बातों के सुनने के बाद उन्हें अनुभव हुआ, कि शूद्रों को केवल गुलामी करते हुए ही जीना-मरना है। शूद्र वर्ण में जन्म लेने का मतलब है अपमान और दासता। उसी दिन के बाद उन्होंने इस ऊँच-नीच के भेदभाव, रूढ़ियों एवं अंधविश्वास को मिटाने का संकल्प लिया।
उसके बाद ज्योतिबा की मुलाकात अपने एक मित्र के जरिये “फर्रार” नामक मिशनरी से हुई। फर्रार ने ज्योतिबा को स्त्री की शिक्षा का महत्व समझाया। ज्योतिबा उनसे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने स्त्री और सदियों से शोषित-वंचित लोगों की सामाजिक गुलामी से मु्क्ति दिलाने के उद्देश्य से सन् 1848 में एक “बालिका विद्यालय” की नींव डाल दी। जिसमें कथित निम्न जातियों की छात्राएँ शिक्षा पाने लगीं। उनका मानना था कि –
“नारी शिक्षित नहीं होगी तो उनके बच्चे संस्कारी और परिष्कृत नहीं बन सकते।”
ज्योतिबा जी ने मनुस्मृति के असामाजिक सिद्धांतों का भी खंडन करते हुए खुलेआम आलोचना की। उन्होंने समाज के निम्न वर्गों को संबोधित करते हुए कहा –
“मेरा अनुसरण करो, अब मत डगमगाओ। शिक्षा तुमको आनंद देगी ज्योतिबा तुम से विश्वास पूर्वक कहता है।”
जब उनको विद्यालय में पढ़ाने के लिऐ कोई शिक्षक नहीं मिल रहा था, तब उन्होंने अपनी पत्नी साबित्रीवाई फुले को शिक्षित किया उसके बाद वो विद्यालय में पढ़ाने लगीं। ज्योतिबा लगातार आगे बढ़ते चले जा रहे थे इसलिए ब्राह्मणों की आँखों में भी वे खटकने लगे थे। ज्योतिबा को रोकने का कोई रास्ता न दिखाई पड़ने पर ब्राह्मणों ने उनके पिताजी पर दवाब बनाया और उनसे कहा –
“तुम्हारा बेटा हिन्दू धर्म एवं समाज के लिए कलंक है और उसी प्रकार उसकी निर्लज्ज पत्नी भी। तुम अनावश्यक भगवान का कोप भाजन बन रहे हो। धर्म और भगवान के नाम पर हम तुमसे कहते है कि तुम उसे ऐसा करने से रोको या फिर घर से निकाल दो।”
ब्राह्मण वर्चस्व के आगे उनके पिताजी को झुकना पड़ा और उन्होंने ना चाहते हुए भी अपने बहू-बेटे से कहा – विद्यालय छोड़ दो या फिर घर छोड़ दो। पर ज्योतिबा ने साफ शब्दों में विद्यालय को छोड़ने से मना कर दिया और घर से निकलना ही उचित समझा। साथ ही साबित्रीवाई से कह दिया कि वे स्वयं का निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र हैं और जैसा तुम्हें अच्छा लगे वैसा ही करो। साबित्रीवाई ने भी कहा कि वो भी पति के कार्यों में हाथ बंटाकर उनका ही साथ देंगी। इस प्रकार पति-पत्नी दोनों ने घर छोड़ दिया।
ज्योतिबा के लिए यह समय बहुत कठिनाई भरा था पर उन्होंने संघर्ष जारी रखा और कई विद्यालय खोल दिए। जिनमें वे बहुत से निर्धन बच्चों को वस्त्र और पुस्तकें मुफ्त प्रदान करते थे, कुछ समाज सेवियों ने भी उनका साथ दिया। उन्होंने अपने जीवन में लगभग 18 विद्यालय खोले थे। इसके अलावा उन्होंने पूना में एक पुस्तकालय भी खोला, जो निम्न कही जाने वाली जातियों के बच्चों के लिए अत्याधिक उपयोगी सिद्ध हुआ।
वहीं दूसरी तरफ ब्राह्मण अपना पुराना राग अलाप रहे थे कि यदि स्त्री और शूद्र शिक्षित हो गए, तो उनका समाज में एकाधिपत्य और जाति वर्चस्व खत्म हो जाएगा। पर ज्योतिबा ने कभी अपने विरोधियों की परवाह न करते हुए डटकर परेशानियों का निर्भीकतापूर्वक सामना किया। ज्योतिबा ने अपने जीवन में विधवा युवतियों के विवाह भी कराए, ये तब किया उन्होंने जब पति की मृत्यु के बाद स्त्री को एकांकी जीवन जीना पड़ता था, ना ही स्त्री किसी मांगलिक कार्यक्रम में भाग ले सकती थी। तब उन्होंने नारी के उद्धार का कार्यक्रम कराया और उन्होंने अपनी देखरेख में 8 मार्च, 1860 में सबसे पहला विधवा युवती का विवाह कराया।
23 सितम्बर, 1873 को उन्होंने “सत्यशोधक समाज” की स्थापना की जिसका उद्देश्य ब्राह्मणवाद और उसकी कुरीतियों के विरुद्ध आवाज उठाना था। उन्होंने मूर्तिपूजा का विरोध किया और लोगों को बताया कि मोक्ष, पुनर्जन्म और स्वर्ग की बातें मिथ्या हैं। किसी के भी ऊपर कोई आकाशीय ग्रहों और पृथ्वी के देवताओं का कोप नहीं है। किसी भी प्रकार की मुक्ति देने के लिए ईश्वर न तो अवतार लेते हैं न ही आदेश देते हैं और न ही हमें कहीं तीर्थों पर जाने की आवश्यकता है। हमें अपना मार्ग स्वयं बनाना होता है।
ज्योतिबा जी ने अपना सारा जीवन शोषित-वंचित और स्त्रियों के उद्धार के लिए समर्पित कर दिया था। इसके अलावा उन्होंने शिक्षा प्राप्त करने के लिए भी बहुत बल दिया था। उन्होंने अपनी एक पुस्तक की प्रस्तावना में लिखा था –
“शिक्षा के अभाव में बुद्धि का ह्रास हुआ।
बुद्धि के अभाव में नैतिकता की अवनति हुई।
नैतिकता के अभाव में प्रगति अवरूद्ध हो गई।
प्रगति के अभाव में शूद्र मिट गए।
सारी विपत्तियों का आविर्भाव निरक्षरता से हुआ।”
Author – Satyendra Singh
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