भारतीय संविधान और बाबासाहेब डॉ. अंबेडकर


आज ही के दिन 26 नवम्बर, 1949 को “भारतीय संविधान” बनकर तैयार हुआ था। भारतीय संविधान के स्मृतिकार बाबासाहेब डॉ. अंबेडकर को कहा जाता है क्योंकि इस संविधान के निर्माण में उन्होंने ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। पर हमें यह जानना भी आवश्यक है कि बाबासाहेब को संविधान सभा में प्रवेश करने के पूर्व किन-किन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा जो उन्हें ऐसे उच्च शिखर तक ले गईं।

सन् 1945 में जब द्वितीय विश्वयुद्ध समाप्त हुआ, उसके बाद भारत को सत्ता सौंपने का मसला खड़ा हो गया। 24 मार्च, 1946 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री लॉर्ड एटली ने ब्रिटिश मंत्रीमंडल के तीन सदस्य – लॉर्ड पेथिक लॉरेंस, सर स्टेफर्ड क्रिप्स और ए.बी. एलेग्जेंडर को भारत में राजनीतिक गतिरोध को रोकने व भारत को सत्ता सौंपने के उद्देश्य से भारत भेजा। इसे “केबीनेट मिशन” कहा गया। मिशन ने भारत के तथाकथित प्रमुख नेताओं से मुलाकात की, उसके बाद 5 अप्रेल, 1946 को उन्होंने अंबेडकर और मास्टर तारासिंह से भी मुलाकात की, जिसमें अंबेडकर ने सदियों से शोषित व वंचित वर्ग के लिए पृथक चुनाव, पृथक आवास और नये संविधान में उनके सुरक्षा संबंधित मांगे प्रस्तुत की, जिनपर पूर्णतः ध्यान नहीं दिया गया।

केबीनेट मिशन ने जब संविधान सभा व अंतःकालीन सरकार की रूपरेखा संबंधी योजना की घोषणा कर दी। जिसमें अंबेडकर के द्वारा रखी गई कथित दलितों के लिए मांगों की उपेक्षा की गई। फलतः उन्होंने संगठित होकर आंदोलन कर दिया। जिसके चलते सवर्ण हिन्दुओं और दलितों में संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो गई और सवर्णों ने अंबेडकर के “भारत भूषण” प्रेस को आग लगा दी जिसका संचालन अंबेडकर के पुत्र “यशवंतराव अंबेडकर” करते थे।

उसके बाद केबीनेट मिशन ने हिन्दू-मुस्लिम समान प्रतिनिधित्व के आधार पर अंतःकालीन सरकार की रूपरेखा संबंधी योजना की घोषणा की, जिसमें 14 सदस्य थे – 5 कांग्रेसी सवर्ण हिन्दू, 1 कांग्रेसी दलित, 5 मुस्लिम लीगी और पारसी, सिख तथा ईसाई का एक-एक प्रतिनिधि। लेकिन हिन्दू-मुस्लिम मतभेदों के चलते इस योजना को स्वीकार नहीं किया गया। उधर डॉ. अंबेडकर ने दलित वर्गों की उपेक्षा किए जाने पर अहिंसात्मक संघर्ष करने की घोषणा कर दी।

डॉ. अंबेडकर ने पूना से अपना आंदोलन प्रारम्भ कर दिया और बताया कि दलितों के हितों की केबीनेट मिशन द्वारा पूर्णतः उपेक्षा की गई है। 7 जुलाई, 1946 को विरोध प्रदर्शन बम्बई में किया गया और भारतीय कांग्रेस कमेटी के कार्यालय के समक्ष भी नारेबाजी की गई। उसके बाद प्रदर्शनकारियों का जुलूस पास के एक मैदान में सभा में बदल गया। जहाँ दादा साहेब गायकवाड़, बापू साहेब, राजभोज आदि नेताओं ने अपने भाषणों में मिशन योजना, कांग्रेस नीति तथा सरकार द्वारा दलितों की उपेक्षा की कड़ी आलोचना की।

डॉ. अंबेडकर के दलित फेडरेशन के निर्देशानुसार देश के अन्य प्रांतों में भी आंदोलन तथा विरोध प्रदर्शन शुरु हो गए। उस वक्त बम्बई प्रांत में ही अकेले 1150 आंदोलनकारी गिरफ्तार किए गए, जिसमें 128 महिलाएँ भी थीं। उत्तरप्रदेश तथा मध्यप्रदेश में भी हजारों की तादाद में आंदोलनकारी गिरफ्तार किए गए। कांग्रेसी दलित नेता जिन्होंने हमेशा अंबेडकर के श्रम और संघर्ष का लाभ उठाया, वो भी अंबेडकर के खिलाफ जहर उगल रहे थे जिनमें प्रमुख तौर पर अंबेडकर के विरोधी “बाबू जगजीवन राम” थे जो कि सदैव कांग्रेसी-पिठ्ठू बने रहे।

बाद में ब्रिटिश भारत के अधीन प्रांतीय विधानसभाओं के चुनाव किया गया, जिनमें 296 सदस्यों को चुना गया। संविधान सभा की शेष सीटों पर देशी रियासतों के प्रतिनिधियों के नामांकन से भरा जाना था। इस चुनाव में कांग्रेस और वामपंथियों ने गठजोड़ कर अंबेडकर और उनकी “शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन” को बम्बई में हरा दिया। सरदार पटेल के निर्देशानुसार बी.जी. खेर के नेतृत्व में कांग्रेस ने यह सुनिश्चित किया कि अंबेडकर बम्बई से चुनकर संविधान सभा में किसी भी हाल में न पहुँच पाएं।

इसके बाद सबसे अहम मोड़ तब आया जब बंगाल से “जोगेन्द्र नाथ मंडल” ने उन्हें बंगाल से चुनाव लड़ने के लिए आमंत्रित किया। अंबेडकर ने बंगाल विधानसभा परिषद से अपना नामज़दगी पत्र भरा। अनुसूचित जातियों के लिए अलग से कोई स्थान न होने के कारण हिन्दुओं के साथ जोड़ दिया गया। 27 हिन्दू और 33 मुस्लिम प्रतिनिधियों का यहाँ चुनाव होना था।

डॉ. अंबेडकर के लिए यह चुनाव जीवन-मरण का सवाल बन चुका था। बंगाल में उनके साथ बुद्धसिंह, करपालसिंह, बच्चूसिंह और जोगेन्द्रनाथ मंडल ने जमकर मेहनत की। यहाँ भी कांग्रेस ने उन्हें हराने के लिए पूरी दमखम लगा दी, पर 20 जुलाई, 1946 को जब परिणाम घोषित हुआ तो शहर नाच उठा। पंजाब से आए उनके शुभचिंतकों का भांगड़ा शुरु हो गया। ढोल पर ताबड़तोड़ डंडे बरस रहे थे और चारों तरफ उनकी जय जयकार के नारे गूँज रहे थे क्योंकि अंबेडकर एंग्लो इंडियन सदस्य, निर्दलीय दलित सदस्य और सम्भवतः मुस्लिम लीग के सदस्यों की मदद से चुनाव जीत गए थे।

डॉ. अंबेडकर ने यह विजय दलित वर्ग की विजय बतलाई और इसके लिए सबको धन्यवाद भी दिया और कहा कि “मैं रक्त की अंतिम बूंद तक अपने लोगों के लिए, उनके हितों के लिए और उनके अस्तित्व के लिए काम करता रहूँगा।”

संविधान सभा में पहुँच जाने के बाद अंबेडकर ने राष्ट्रीय घोषणा पत्र आदि तैयार करने में कांग्रसियों के साथ मिलकर काम किया और साथ ही उन्होंने अपने काम से कई सदस्यों को प्रभावित भी किया। लेकिन कांग्रेस ने फिर भी एक कुटिल चाल चल दी और जैसुर-खुलना जहाँ से अंबेडकर चुनाव जीते थे उसे पूर्वी बंगाल को दे दिया जिसके कारण अंबेडकर पाकिस्तान संविधान सभा के सदस्य बन गए। विभाजन के लिए तय नियमानुसार बंगाल प्रांत के जिस निर्वाचन क्षेत्र की आबादी 50% से ज्यादा हो पाकिस्तान/पूर्वी बंगाल को दिया जाना चाहिए था जबकि जैसुर-खुलना में मुस्लिमों की आबादी 48% ही थी। जिसके कारण अंबेडकर को वहाँ से इस्तीफा देना पड़ा।

डॉ. अंबेडकर ने इस विषय से संबंधित ब्रिटिश प्रधानमंत्री से मुलाकात की और उन्होंने कांग्रेस के द्वारा चली गई कुत्सित चाल से अवगत कराया। ब्रिटिश सरकार ने इसे गम्भीरता से लिया क्योंकि वो भी समझ गए थे कि अंबेडकर को रोकना मुश्किल है वो पहले से केबीनेट मिशन की योजना से असंतुष्ट थे और इस बार तो उनके साथ सीधा-सीधा अन्याय किया जा रहा है। जिसके चलते ब्रिटिश सरकार ने नेहरू को सूचित किया कि जैसुर-खुलना को भारत में रहने दिया जाए अथवा डॉ. अंबेडकर को किसी अन्य स्थान से संविधान सभा में भेजने की व्यवस्था की जाए।

इस तरह तमाम दबाबों के चलते कांग्रेस को उन्हें संविधान सभा में उन्हें बम्बई से चुनकर भेजना पड़ा। इसके अलावा 1946 के कार्यकाल में संविधान सभा के कुछ सदस्य जो उनके ज्ञान से परिचित हो गए थे वो उनके साथ काम करने के इच्छुक थे। डॉ. अंबेडकर की पुस्तक “स्टेट्स एंड मायनारिटीज” जिसकी रचना उन्होंने संयुक्त गणराज्य के संविधान के रूप में की थी। इसकी प्रतियां भी संविधान सभा में सभी के पास पहुँच चुकी थी जिसे पढ़कर सभी उनके उत्कृष्ट ज्ञान के कायल हो गए थे। दूसरी तरफ नेहरू किसी संविधान विशेषज्ञ की तलाश में थे ऐसी स्थिति में डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने 30 जून, 1947 को बम्बई के प्रधानमंत्री बी.जी. खेर को पत्र लिखकर संविधान सभा में डॉ. अंबेडकर का चुनाव सुनिश्चित करने का निर्देश दिया।

इस पत्र में उन्होंने लिखा –
“अन्य बातों के अलावा हमने यह (भी) अनुभव किया है कि संविधान सभा और विभिन्न समितियों जिनमें उन्हें नियुक्त किया गया, दोनों जगह डॉ. अंबेडकर के काम का स्तर इतने उच्च कोटि का रहा है कि हम उनकी सेवाओं से स्वयं को वंचित नहीं कर सकते। जैसा कि आपको पता है वह बंगाल से चुने गए थे और उस प्रांत के विभाजन के कारण अब वह संविधान सभा के सदस्य नहीं रहे। मेरी प्रबल इच्छा है कि उन्हें संविधान सभा के लिए निर्वासित कराएं ताकि 14 जुलाई, 1947 से शुरु होने वाले अधिवेशन में निर्वाचित होकर संविधान संरचना में योगदान दे सकें।”

उसके बाद सरदार पटेल जो कि अंबेडकर को संविधान सभा में घुसने भी नहीं देना चाहते थे उन्होंने भी अपना रवैया बदला और बी.जी. खेर को फोन करके अंबेडकर का चुनाव सुनिश्चित करने के लिए शीघ्र कार्यवाही करने को कहा।

बाद में 29 अगस्त, 1947 को जब संविधान सभा ने संविधान-प्रारूप समिति का गठन किया जिसमें डॉ. अंबेडकर को प्रारूप समीति का अध्यक्ष बनाया गया। इस प्रारूप समिति में सात सदस्य थे – एन. गोपाला स्वामी आयंगर, सर अल्लादि कृष्णस्वामी अय्यर, के.एम. मुंशी, सर मुहम्मद शादुल्ला, एन. माधव मेनन एवं डी.पी. खेतान।

डॉ. अंबेडकर ने संविधान सभा में प्रारूप समिति के अध्यक्ष होते हुए अथाह मेहनत की जबकि उनकी हालत लगातार बिगड़ती जा रही थी, उनका स्वास्थ्य खराब हो रहा था, उनके पैरों में भी दर्द रहता था और वह मधुमेह से पीड़ित भी थे। अंबेडकर को पाकिस्तान में जो दलित थे उनकी भी लगातार चिंता थी और उन्होंने नेहरू से भी अपील की कि उन्हें वापस भारत बुलाने का कोई ठोस कदम उठाया जाए पर नेहरू ने उनकी इस अपील को अनसुना कर दिया और इसपर कोई कदम नहीं उठाया गया।

डॉ. अंबेडकर ने संविधान रचना में कितना परिश्रम किया इस बात का अंदाजा 4 नवम्बर, 1948 को दिए गए “टी.टी. कृष्णामाचारी” के संविधान सभा में वक्तव्य से लगाया जा सकता है। उन्होंने कहा –
“मैं उस परिश्रम और उत्साह को जानता हूँ, जिससे उन्होंने संविधान सभा का प्रारूप को तैयार किया। संविधान सभा सात सदस्य मनोनीत थे। उनमें से एक ने संविधान सभा से त्याग पत्र दे दिया, जिसकी पूर्ति कर दी गई, एक सदस्य का देहांत हो गया। उसका स्थान नहीं भरा गया। एक अमेरिका चला गया और स्थान खाली बना रहा। एक अन्य सदस्य राजकीय कार्यों में व्यस्त रहा और उनका स्थान भी खाली रहा। एक या दो सदस्य दिल्ली से बाहर रहे और शायद स्वास्थ्य के कारण उपस्थित नहीं हो सके। हुआ यह कि संविधान बनाने का सारा भार डॉ. अंबेडकर के कंधों पर आ पड़ा। इसमें मुझे संदेह नहीं कि जिस ढंग से उन्होंने संविधान तैयार किया, हम उसके लिए कृतज्ञ हैं। यह निस्संदेह प्रशंसनीय कार्य है।”

इनके अलावा सैयद करीमुद्दीन, प्रो. के.टी. शाह, पंडित लक्ष्मीकांत मैत्रे, डॉ. पंजाब राव देशमुख, एस. नागप्पा, टी. प्रकाशम, जोसेफ ए.डी सूजा, आर.के. सिधवा, जे.जे. निकोलस राय आदि के भी वक्तव्य ध्यान देने योग्य हैं जिसमें उन्होंने डॉ. अंबेडकर की सराहना की है।

नेहरू ने भी उनकी संविधान संरचना में उनके योगदान की प्रशंसा करते हुए कहा था कि –
“अक्सर डॉ. अंबेडकर को संविधान निर्माता कहा जा रहा है। वे अपनी तरफ से कह सकते हैं कि उन्होेंने बड़ी सावधानी और कष्ट उठाकर संविधान बनाया है। उनका बहुत महत्वपूर्ण और रचनात्मक योगदान है।”

26 नवम्बर, 1949 को आखिरकार डॉ. अंबेडकर ने भारतीय संविधान को 2 वर्ष, 11 माह और 18 दिन में देश को समर्पित कर दिया। इसलिए इस दिन को “संविधान दिवस” के रूप में मनाया जाता है। गणतंत्र भारत में संविधान को 26 जनवरी, 1950 को अमल में लाया गया। इस अवसर पर “डॉ. राजेन्द्र प्रसाद” ने कहा था –
“सभापति के आसन पर बैठकर, मैं प्रतिदिन की कार्यवाही को ध्यानपूर्वक देखता रहा और इसलिए, प्रारूप समिति के सदस्यों, विशेषकर डॉ. अंबेडकर ने जिस निष्ठा और उत्साह से अपना कार्य पूरा किया, इसकी कल्पना औरों की अपेक्षा मुझे अधिक है। डॉ. अंबेडकर को प्रारूप समिति में शामिल करने और उसका अध्यक्ष नियुक्त करने से बढ़कर कोई और अच्छा हम दूसरा काम न कर सके। उन्होंने अपने चुनाव को न केवल न्यायोचित ठहराया है, बल्कि उस काम में कांति का योगदान दिया है जिसे उन्होंने सम्पन्न किया है।”

निश्चित तौर पर बाबासाहेब डॉ. अंबेडकर ने संविधान बनाने में बहुत परिश्रम किया था। हालांकि वो इससे भी बहुत अधिक चाहते थे। तब जाकर उन्होंने हमें एक ऐसा संविधान दिया जो जाति, लिंग, नस्ल, धर्म और जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव को निषेध करता है बल्कि सदियों से शोषित-वंचित वर्गों को सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक और राजनीतिक रूप से मुख्यधारा में लाने का अवसर प्रदान करता है।

जय भीम!
बस नाम ही काफी है!

लेखक – सत्येंद्र सिंह

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7 Comments

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  1. 5
    L.K.BHARAT

    Very importent and best article about the struggle of B.R. Ambedkar to preapare the Constitution of India. Thanks, for providing such knowledge

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