धरती आबा बिरसा मुंडा को समर्पित सूरज कुमार बौद्ध की कविता- अबुआ दिशुम, अबुआ राज


अबुआ दिशुम अबुआ राज

हे धरती आबा,
तुम याद आते हो।
खनिज धातुओं के मोह में
राज्य पोषित ताकतें
हमारी बस्तियां जलाकर
अपना घर बसा रहे हैं।
मगर हम लड़ रहे हैं
केकड़े की तरह इन बगुलों के
गर्दन को दबोचे हुए
लेकिन इन बगुलों पर
बाजों का क्षत्रप है।
आज जंगल हुआ सुना
आकाश निःशब्द चुप है।

माटी के लूट पर संथाल विद्रोह
खासी, खामती, कोल विद्रोह
नागा, मुंडा, भील विद्रोह
इतिहास के कोने में कहीं सिमटा पड़ा है।
धन, धरती, धर्म पर लूट मचाती धाक
हमें मूक कर देना चाहती है।
और हमारे नाचते गाते
हंसते खेलते खाते कमाते
जीवन को कल कारखानों,
उद्योग बांध खदानों,
में तब्दील कर दिया है।
शोषक हमारे खून को ईंधन बनाकर
अपना इंजन चला रहे हैं।

धरती आबा,
आज के सामंती ताकतें
जल जंगल पर ही नहीं
जीवन पर भी झपटते हैं।
इधर निहत्थों का जमावड़ा
उधर वो बंदूक ताने खड़ा।
मगर हमारे नस में स्वाभिमान है,
भीरू गरज नहीं उलगुलान है।
लड़ाई धन- धरती तक
सिमटकर कैद नहीं है।
हमारे सरजमीं की लड़ाई
शिक्षा, स्वास्थ्य, संस्कृति
मान, सम्मान, प्रकृति..
संरक्षण के पक्ष में है।
ताकि जनसामान्य की
जनसत्ता कायम हो।
अबुआ दिशुम अबुआ राज की
अधिसत्ता कायम हो।

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– सूरज कुमार बौद्ध
(रचनाकार भारतीय मूलनिवासी संगठन के राष्ट्रीय महासचिव हैं।)

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