डाॅ. बाबासाहब अंबेडकर और धर्म-परिवर्तन की घोषणा
बाबासाहेब डॉ. अंबेडकर ने 13 अक्टूबर, 1935 में धर्म-परिवर्तन की सार्वजनिक घोषणा करते हुए कहा था – “दुर्भाग्य से मैं हिन्दू समाज के एक अछूत के रूप में पैदा हुआ हूँ। यह मेरे वश की बात नहीं थी; लेकिन हिन्दू समाज में बने रहने से इंकार करना मेरे नियंत्रण में है और मैं आपको आश्वासन देता हूँ कि मैं मरते समय हिन्दू नहीं रहूँगा।
बाबासाहेब ने ये घोषणा कोई जल्दबाजी में नहीं की थी बल्कि बहुत सोच विचार कर यह निर्णय लिया था। बाबासाहेब ने हिन्दू समाज को सुधारने, समता तथा सम्मान प्राप्त करने के लिए तमाम प्रयत्न किए, परन्तु सवर्ण हिन्दुओं का ह्रदय परिवर्तन न हुआ। उल्टे उन्हें निंदित किया गया, देशद्रोही कहा गया और यहाँ तक कि उन्हें हिन्दू धर्म विनाशक कहा गया। तभी बाबासाहेब ने कहा था –
“हमने हिन्दू समाज में समानता का स्तर प्राप्त करने के लिए हर तरह के प्रयत्न और सत्याग्रह किए, परन्तु सब निरर्थक सिद्ध हुए। हिन्दू समाज में समानता के लिए कोई स्थान नहीं है”
हिन्दू समाज का यह भी कहना था कि “मनुष्य धर्म के लिए है” जबकि बाबासाहेब का मानना था कि मनुष्य धर्म के लिए नहीं है बल्कि धर्म मनुष्य के लिए होना चाहिए। बाबासाहेब ने कहा कि ऐसे धर्म का कोई मतलब नहीं जिसमें मनुष्यता का कुछ भी मूल्य नहीं। जो धर्म शिक्षा प्राप्त नहीं करने देता, नौकरी करने में बाधा पहुँचाता है, बात-बात पर अपमानित करता है और यहाँ तक कि पानी तक नहीं मिलने देता ऐसे धर्म में रहने का कोई मतलब नहीं।
बाबासाहेब ने हिन्दू धर्म त्यागने की घोषणा किसी भी प्रकार की दुश्मनी व हिन्दू धर्म के विनाश के लिए नहीं की थी बल्कि उन्होंने इसका फैसला कुछ मौलिक सिद्धांतों को लेकर किया जिनका हिन्दू धर्म में बिल्कुल तालमेल नहीं था।
बाबासाहेब के धर्म-परिवर्तन की घोषणा के बाद हैदरावाद के मुस्लिम धर्म के निज़ाम से लेकर कई ईसाई मिशनरियों ने उन्हें करोड़ों रुपये का प्रलोभन भी दिया पर उन्होनें सभी को ठुकरा दिया। निःसंदेह वो भी चाहते थे कि दलित समाज की आर्थिक स्थिति में सुधार हो, पर पराए धन पर आश्रित होकर नहीं बल्कि उनके परिश्रम और संगठन होने से स्थिति में सुधार आए।
इसके अलावा बाबासाहेब ऐसे धर्म को चुनना चाहते थे जिसका केन्द्र मनुष्य और नैतिकता हो, उसमें स्वतंत्रता, समता तथा बंधुत्व हो। वो किसी भी हाल में ऐसे धर्म को नहीं अपनाना चाहते थे जो वर्णभेद तथा छुआछूत की बीमारी से जकड़ा हो और ना ही वो ऐसा धर्म चुनना चाहते थे जिसमें अंधविश्वास तथा पाखंडवाद हो।
बाबासाहेब बौद्ध धर्म को पसंद करते थे क्योंकि उसमें तीन सिद्धांतों का समन्वित रूप मिलता है जो किसी अन्य धर्म में नहीं मिलता। बौद्ध धर्म प्रज्ञा (अंधविश्वास तथा अतिप्रकृतिवाद के स्थान पर बुद्धि का प्रयोग), करुणा (प्रेम) और समता (समानता) की शिक्षा देता है। उनका कहना था कि मनुष्य इन्हीं बातों को शुभ तथा आनंदित जीवन के लिए चाहता है। देवता और आत्मा समाज को नहीं बचा सकते।
बाबासाहेब के अनुसार सच्चा धर्म वो ही है जिसका केन्द्र मनुष्य तथा नैतिकता हो, विज्ञान अथवा बौद्धिक तत्व पर आधारित हो, न कि धर्म का केन्द्र ईश्वर, आत्मा की मुक्ति और मोक्ष। साथ ही उनका कहना था धर्म का कार्य विश्व का पुनर्निर्माण करना होना चाहिए ना कि उसकी उत्पत्ति और अंत की व्याख्या करना। बाबासाहेब जनतांत्रिक समाज व्यवस्था के पक्षधर थे, क्योंकि उनका मानना था ऐसी स्थिति में धर्म मानव जीवन का मार्गदर्शक बन सकता है। ये सब बातें उन्हें एकमात्र बौद्ध धर्म में मिलीं।
बाबासाहेब ने धर्म परिवर्तन की घोषणा करने के बाद 21 वर्ष तक का समय लेने के बाद बौद्ध धर्म स्वीकार किया। इस बीच बाबासाहेब ने सभी धर्मों का गहन अध्ययन भी किया। बाबासाहेब के द्वारा इतना लंबा समय लेने का मुख्य कारण यह भी था कि वो चाहते थे कि जिस समय वो धर्म परिवर्तन करें उनके साथ ज्यादा से ज्यादा उनके अनुयायी धर्मान्तरण करें।
बाबासाहेब के धर्म-परिवर्तन का उद्देश्य “बहुजन समाज” सुसंगठित करना भी था जो कि तमाम जातियों में बिखरा हुआ है। उन्होंने जरूर सोचा होगा कि बहुजनों का खुद का एक धर्म व संस्कृति हो क्योंकि उन्होंने भलीभांति अनुभव कर लिया था कि हिन्दू धर्म में रहते हुए बहुजन समाज की उन्नति संभंव नहीं। इसलिए उन्होंने बौद्ध धर्म का मार्ग दिखाया।
बाबासाहेब ने 1935 में येवला कॉन्फ्रेंश में जब धर्म-परिवर्तन की घोषणा की थी तब सारे हिन्दुओं ने जबरदस्त विरोध किया। यहाँ तक कि कांग्रेस के पिठ्ठू “जगजीवन राम” जैसे हरिजनों ने भी जगह-जगह जाकर धर्म-परिवर्तन के विरोध में सभाएं संबोधित की थी। इन लोगों ने बाबासाहेब को धर्म-परिवर्तन न करने के लिए खूब जोर दिया पर बाबासाहेब का यह अटल फैसला था उन्होंने किसी की परवाह किए वगैर 23 सितम्बर, 1956 को अपनी बौद्ध धर्म अपनाने की तिथि की घोषणा कर दी।
इस घोषणा के बाद हिन्दुओं व आर्यसमाजियों में तहलका मच गया। बाबासाहेब 12 नवम्बर, 1956 को नागपुर पहुँचे। तभी से देश भर से उनके अनु़यायिओं के आने का सिलसिला जारी हो गया। बहुत से स्त्री-पुरुष-बच्चे जिनके पास पैसे नहीं थे वो मीलों पैदल चलकर आए। कुछ लोग अपनी चीजों को बेंचकर रेलगाड़ियों व मोटर गाड़ियों से पधारे। ये सब अपने ह्रदय सम्राट बाबासाहेब के साथ हिन्दू धर्म से मुक्ति पाने के लिए आ रहे थे।
13 अक्टूबर, 1956 को बाबासाहेब ने पत्रकार भेंटवार्ता के दौरान कहा कि वो हीनयान या महायान बौद्ध धर्म को नहीं अपनायेंगे क्योंकि उसमें अंधविश्वास और कुरीतियाँ आ गई हैं इसलिए वो बुद्ध की शिक्षाओं का ही अनुशरण करेंगे। जिसे “नवयान” नाम दिया गया। उन्होंने सभी को नवयान के रूप में एक “शुद्ध बौद्ध धर्म” दिया। जिसमें अंधविश्वास और कुरीतियों का कोई स्थान नहीं।
14 अक्टूबर, 1956 की सुबह बाबासाहेब जल्दी उठे और नहा-धोकर दीक्षा भूमि की ओर रवाना हो गए। मार्ग में दोनों तरफ बेशुमार भीड़ थी। लोगों में बड़ा उत्साह था, आकाश बुद्ध और बाबासाहेब की जय से गूँज रहा था। सभी लोग प्रसन्न थे। बाबासाहेब जैसे ही पण्डाल पहुँचे उन्हें मंच पर ले जाया गया। एक हाथ में लाठी और दूसरे हाथ को वे रत्तू के कंधे पर रखकर खड़े हुए। वहाँ एकत्र जन समूह ने उनका तालियों की गगनभेदी गड़गड़ाहट से स्वागत किया।
मंच पर विराजमान 83 वर्षीय महास्थविर चन्द्रमणि ने उन्हें धम्म दीक्षा दी। उसके बाद बौद्ध धर्म स्वीकार करने की घोषणा की गई। आकाश बाबासाहेब और बुद्ध के नारों से गूँज उठा। तब बाबासाहेब ने उद्घोषणा की –
“अपने पुराने धर्म को त्यागकर जो असमानता और दमन पर आधारित है, मैं आज पुनः जन्मा हूँ। अवतारवाद में मेरा कोई विश्वास नहीं और यह कहना गलत एवं शरारतपूर्ण है कि बुद्ध विष्णु के अवतार थे। मैं अब किसी हिन्दू देवी-देवता का पुजारी नहीं हूँ। मैं श्राद्ध की क्रिया नहीं करूँगा। मैं बुद्ध के अष्टांग मार्ग का पूर्णतः अनुशरण करूँगा। बौद्ध धर्म एक सच्चा धर्म है और मैं अपने जीवन को ज्ञान, सम्यक मार्ग तथा दया के सिद्धांतों के साथ संचालित करूँगा।”
बाबासाहेब ने इसी के साथ बुद्ध के मूल विचारों का सरलीकरण करके “बाइस प्रतिज्ञाओं” के रूप में प्रस्तुत किया, जिसका एकत्र जन समूह ने स्वागत किया। उसके बाद बाबासाहेब ने वहाँ आए लाखों लोगों को बौद्ध बनाया। तीन दिन में लगभग चौदह लाख लोगों का बौद्ध धर्म ग्रहण करवाकर बाबासाहेब ने इतिहास रच डाला।
उसके बाद बाबासाहेब को नेपाल में राजा महेन्द्र ने उन्हें काठमांडू में होने वाले बौद्ध सम्मेलन में आमंत्रित किया। बाबासाहेब का स्वास्थ्य उस समय बहुत खराब था पर उनके अनु़यायिओं ने उन्हें वहाँ जाने के लिए राजी कर लिया। 14 नवम्बर, 1956 को वो काठमांडू के लिए अपने साथियों के साथ रवाना हो गए। 15 नवम्बर को राजा महेन्द्र द्वारा बौद्ध सम्मेलन का उद्घाटन किया गया। नेपाल सरकार ने उस दिन को छुट्टी का दिन घोषित कर दिया।
बाबासाहेब जब वहाँ बोले तो सम्पूर्ण भीड़ ने उनका जयघोष किया और उनका जबरदस्त स्वागत हुआ जबकि भारत में बौद्ध धर्म अपनाने के बाद उनका किसी भी हिन्दू नेता व विद्वान ने स्वागत नहीं किया था। वहाँ पर उमड़ा जन समूह चाहता था कि बाबासाहेब कार्ल मार्क्स और बुद्ध पर भाषण दें, तब उन्होंने मार्क्स और बुद्ध की विचारधारा में भेद भी बताया।
2 दिसम्बर, 1956 को अशोक बिहार में दलाई लामा के स्वागत में, जो बौद्धगया में बुद्ध की 2500वीं जयंती में पधारे थे, इस आयोजन में भी बाबासाहेब ने भाग लिया। 4 दिसम्बर को बाबासाहेब राज्यसभा में भी गए। इसके बाद बाबासाहेब को 16 दिसम्बर को बॉम्बे में धर्म-परिवर्तन की दीक्षा देने के लिए जाना था। जहाँ वो नहीं जा सके उससे पहले उनका 6 दिसम्बर, 1956 को परिनिर्वाण हो गया था।
बाबासाहेब ने अपना सारा जीवन शोषित-वंचित समाज के उद्धार के लिए समर्पित कर दिया था और आज ही के दिन 14 अक्टूबर, 1956 को बौद्ध धर्म के रूप में मार्ग बताकर हमें नया जीवन प्रदान किया था इसलिए हमारा भी कर्तव्य है कि उनके प्रबुद्ध भारत के सपने को साकार करने में अपना योगदान दें।
Thanks for providing knowledgeable information about Buddhism and Dr Bhimrao sahab.