अगर मांगने से दुआ कबूल होती – आधी आबादी को अपने हक़ के लिए लड़ने को प्रेरित करती सूरज कुमार बौद्ध की कविता


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आधी आबादी को अपने हक़ के लिए लड़ने को प्रेरित करती सूरज कुमार बौद्ध की कविता: अगर मांगने से दुआ कबूल होती।

हजारों सालों से धर्मशास्त्रों के माध्यम से इस देश के आधी आबादी का दमन होता रहा। मनुस्मृति जैसे धर्मशास्त्र इस उत्पीड़न को धर्म का रूप लेते रहें। अब आज की महिलाओं ने आजादी की मांग शुरू कर दी हैं। इस देश में फूलन देवी जैसी वीरांगनाओं ने “हक़ छीनकर लेने” की महत्ता पर बल दिया है। अब एक सवाल खड़ा हो चुका है कि क्या मांगने से अधिकार नहीं मिलता है? मेरा अपना मानना है कि मांगने से सिर्फ दो चीजें मिलती है- भीख अथवा उधार। अगर आपको अपना हक चाहिए तो लड़ना पड़ेगा। आइए पढ़ते हैं मेरी कविता- अगर मांगने से दुआ कबूल होती।

 

(अगर मांगने से दुआ कबूल होती)

 

अगर मांगने से दुआ कबूल होती,

दरिंदगी के भेष से बेटियां महफूज होती,

न कहीं चिंता, न कोई तकलीफ होती

अगर मांगने से दुआ कबूल होती।

 

क्यों परंपरा के आड़ में रोती रहूं?

उद्वेलित आंसुओं के सिक्त में सोती रहूँ?

तड़पती रूह हर पल यूं ही नहीं रोती,

अगर मांगने से दुआ कबूल होती।

 

समस्या पर तर्कहीन कानाफूसी होती है,

आरोप प्रत्यारोप की राजनीति होती है,

निरंतर अपराधों की कड़ी टूट रही होती,

अगर मांगने से दुआ कबूल होती।

 

उत्पीड़न की कथा सुनकर सिहर जाती हूं,

बेबस जिंदगी दिल धड़कते ही डर जाती हूं,

ऑनर किलिंग अभिशाप जन्मी नहीं होती,

अगर मांगने से दुआ कबूल होती।

 

कल मेरे सपने में झलकारीबाई आई,

मैंने बिलखकर सच्ची दास्तान सुनाई,

वह बोली सुरक्षित तो मैं भी होती,

अगर मांगने से दुआ कबूल होती।

 

चिन्तनहीन अनुशीलन बोधगम्य संकेत नहीं।

रिश्ता मन बंधन है उपभोग हेतु नहीं,

सोचती हूं काश हम आजाद होते,

अगर मांगने से दुआ कबूल होती।

 

– सूरज कुमार बौद्ध

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