हासिए पर रखी गई जातियों के प्रति नज़रंदाज़ी सामाजिक तस्करी होती है – कांचा इलैया


scroll.in पर कांचा इलैया का इन्टरव्यू प्रकाशित हुआ है, जिसमें वह कह रहे हैं कि मैं कहीं भी सुरक्षित नहीं हूँ, इसलिए मैंने अपने आप को खुद ही अपने घर में कैद कर लिया है. यह इन्टरव्यू 30 सितम्बर 2017 के Indian Express में भी प्रकाशित हुआ है. इसमें उन्होंने अपनी किताब ‘पोस्ट-हिन्दू इंडिया’ के बारे में विस्तार से चर्चा की है. इसी किताब पर ही तेलगुदेशम पार्टी के सांसद टी. जी. वेंकटेश ने उन्हें सड़क पर सरेआम फांसी देकर मारने को कहा है. यह किताब 2009 में प्रकाशित हुई थी. एक छोटे प्रकाशक ने इसका तेलगु अनुवाद कराकर प्रत्येक अध्याय को अलग-अलग पुस्तिकाओं में छाप दिया. इसका पहला अध्याय आदिवासी लोगों पर है, जिसका नाम है ‘अवैतनिक शिक्षक’. दूसरा अध्याय चमारों पर है, जिसका नाम उन्होंने ‘हाशिये के वैज्ञानिक’ रखा है. तीसरा अध्याय महारों पर है, जिसका नाम ‘उत्पादक सैनिक’ है. उसके बाद का अध्याय धोबी समुदाय पर है, जिसका नाम ‘उपेक्षित नारीवादी’ है. एक अध्याय नाइयों पर है, जिसका नाम ‘सामाजिक चिकित्सक’ है. इसके बाद एक अध्याय लुहारों, सुनारों और कुम्हारों पर है, जिसका नाम ‘अज्ञात इंजिनियर’ है. इसी तरह एक अन्य अध्याय ‘दुग्ध और मांस अर्थव्यवस्था’ पर है, तो एक ‘खाद्य उत्पादक’ जाट, गूजरों और कप्पुओं पर है. अंतिम अध्याय उन्होंने वैश्य समुदाय पर लिखा है, जिसका नाम ‘सामाजिक तस्कर’ है. सारा विवाद इसी ‘सामाजिक तस्कर’ अध्याय पर है, जिसे तेलगु प्रकाशक ने तेलगु में अलग पुस्तिका में छापा है. इसी ‘सामाजिक तस्कर’ को पढ़कर वैश्य समुदाय कांचा इलैया के खिलाफ है, और उनको लगातार धमकियाँ दे रहा है.

‘सामाजिक तस्कर’ में कांचा इलैया ने क्या स्थापित किया है? इसे उन्होंने अपने इन्टरव्यू में काफी हद तक स्पष्ट कर दिया है. मैंने कुछ अंशों का हिंदी में अनुवाद किया है, जो नीचे दे रहा हूँ—

वे कहते हैं—

‘उत्तर-गुप्त काल से ही सारा व्यापार वर्णव्यवस्था के द्वारा वैश्यों के लिए सुरक्षित हो गया था. और वे वस्तुओं की खरीद-फरोख्त में लोगों के साथ धोखा करते हैं. इतिहास बताता है कि वे अपने धन को जमीन में दबा कर रखते थे, जिसे वे ‘गुप्त धन’ कहते थे. वे उस धन को वापस कृषि उत्पादन के कार्यों में कभी व्यय नहीं करते थे.

इस संस्कृति में परोपकार की भी कोई अवधारणा नहीं है. दूसरी जातियों के साथ अन्तर्विवाह की भी अवधारणा इसमें नहीं है. वे त्योहारों पर भी मिलते-जुलते नहीं हैं. वे लगभग हर किसी को अछूत समझते हैं. यही संस्कृति उच्चतम स्तर पर चली गई है : भारतीय व्यापार की 46 प्रतिशत पूंजी इसी बनिया समुदाय के हाथों में है.

इस तरह ‘सामाजिक तस्कर’ पर यह छोटा सा अध्याय बताता है कि किस तरह तस्करी करके राष्ट्र की पूंजी को अवैध रूप से उसकी सीमाओं के बाहर ले जाया जा रहा है. सामाजिक तस्करी तब होती है जब धन देश के भीतर रहता है, लेकिन यह मनु के धर्मशास्त्र के अनुसार निर्धारित की गई एक ही जाति तक सीमित है. इसलिए वे कोई इन्वेस्ट नहीं करते, सिर्फ जमाखोरी करते हैं. और यह जमाखोरी किसी सामाजिक कार्य में व्यय नहीं होती है.

मैंने यह साबित किया है कि अदानी और अम्बानी ने आज जितनी पूंजी बनाई है, वह किसी भी सामाजिक उत्तरदायित्व की संस्कृति से नहीं जुडी हुई है. वह न किसी मानवीय सहानुभूति के काम में व्यय हुई है, और न उसने कोई मानवीय हितों का कोष स्थापित किया है.

‘एक जाति के द्वारा किए जाने वाले व्यापार ने भारत में किसी भी व्यापारिक पूंजी का विकास स्वीकार नहीं किया है, मध्यकाल से ही वह किसी भी स्वदेशी उद्योग के विकास का पक्षधर नहीं रहा है. बनिया-ब्राह्मण नेटवर्क के कारण ही सोने के विशाल भंडार को मन्दिरों में रखा गया था. इस तरह धन को दूर छिपाया गया था. परिणामत:, देशी उद्योग-धंधों का विकास नहीं हुआ. आज भी यही स्थिति बनी हुई है. यही कारण है कि वे निजी क्षेत्र में आरक्षण देने से मना कर देते हैं, और सरकारी क्षेत्र में नौकरियां नहीं हैं. इसलिए मेरा कहना यह है कि वैश्य ‘सामाजिक तस्कर’ हैं, और मनु के धर्मशास्त्र के अंतर्गत ब्राह्मणों ने उनके लिए किले बनाए हुए हैं, जिसे ‘आध्यात्मिक फासीवाद’ कहा जाता है. इन दोनों के अंतर्संबंध ने ही जातीय संस्कृति का निर्माण किया है.

इंडियन एक्सप्रेस को दिए गए एक इंटरव्यू में वह कहते हैं कि मैंने ये किताब 2009 में लिखी थी। इसमें कई चैप्टर है जो अलग-अलग जातियों के लिए कैटेगरी अनुसार है – जैसे कि नाइयों के लिए ‘सोशल डॉक्टर’, धोबियों के लिए ‘सबाल्टर्न नारीवादी’ और बनियों के लिए ‘सोशल स्मगलर’ यानी सामाजिक तस्कर और ब्राह्मणों के लिए ‘स्प्रिचुअल फासिस्ट’ यानी आध्यात्मिक फासीवादी।

इसकी वजह बताते हुए कांचा इलैया कहते हैं कि ऐसा बोलने के पीछे उनकी कोई नफरत नहीं बल्कि अर्थशास्त्र है ।वह खुद को सिर्फ एक अर्थशास्त्री के रूप में देखते हुए कहते हैं कि इस देश में बनिया ,जो 1.9 प्रतिशत है, कॉरपोरेट डायरेक्टर के पद पर 46% विराजमान है,इतनी बड़ी कॉरपोरेट भागीदारी होकर भी अपनी सोशल रिस्पांसिबिलिटी से मुंह मोड़कर यह इस समाज को उसका 1% देने से भी बचते हैं, तो यह स्मगलिंग ही तो हुई।जब किसी समाज और राज्य से धन कमाया जाए लेकिन उसके एवज में उस समाज को न लौटाया जाए तो यह स्मगलिंग कहलाती है।

वह और आंकड़े देते हुए कहते हैं कि इसमें दूसरा नंबर ब्राम्हणों का है जो कारपोरेट डायरेक्टर के पद पर 44.6 प्रतिशत तैनात हैं ,उनकी भी ऐसी ही जिम्मेदारी बनती है ।

इलैया कहते हैं कि जाति नियंत्रित समाज में हासिए पर रखी गई जातियों के प्रति नज़रंदाज़ी सामाजिक तस्करी होती है , जिसका इलाज सिर्फ एक है कि समाज के सभी वर्गों को प्रतिनिधित्व दिया जाए और इसके लिए जरूरी है निजी क्षेत्रों में आरक्षण लागू किया जाए।

‘याद रहे, आज भी 46 प्रतिशत पूंजी बनियों के हाथों में है. नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद, निजी क्षेत्र पर फोकस और भी बढ़ गया है. यदि वे अब भी सामाजिक उत्तरदायित्वों को नहीं निभाते हैं, तो किसानों की आत्महत्याएं नहीं रुक सकतीं. मैं अब निजी क्षेत्र में भारतीय सेना के परिवारों के लिए एक नौकरी की मांग कर रहा हूँ. और निजी क्षेत्र में ही कम से कम पांच प्रतिशत आरक्षण दलितों और आदिवासियों के लिए होना चाहिए,’

पूरा इन्टरव्यू scroll.in पर पढ़ें.

– कँवल भारती

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1 comment

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  1. 1
    r.c.vivek

    After long time ,Kancha Illeya has realized that he is lave in the country as he can not express his views as per constitution ,if he will express then his life will be in dangerous position like Gauri Lankeshwar who was killed by goons as she raised her voice against injustice hence here Kancha Illeya has been threaten same way hence he is feeling ensure in his own country .hence it seems that no democratic rule in the country but dictatorship is going on hence all are requested to drag to down to BJP in next election because they have forgotten that they are ruling the country due to us ,think seriously in the interest of the downtrodden community .

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