रोहित वेमुला के भारतीय वामपंथ पर विचार
रोहित वेमुला को हॉस्टल से निकाला तो पाँच छात्रों के साथ था, पर जब वो निकला तो उसके साथ संघर्ष करने के लिए पाँच नहीं सैकड़ों छात्रों का हुजूम निकला। उसके साथ जब “अंबेडकर स्टूडेंन्ट्स एसोसियशन” के छात्र जब निकलते थे तब देशभर के तमाम अंबेडकरवादी लोग सड़कों पर उतर आते थे।
पर ऐसे सशक्त प्रतिरोध आंदोलन का हिस्सा होते हुए भी रोहित को 17 जनवरी, 2016 को अपनी ही जान लेनी पड़ती है। ब्राह्मणवादी सिस्टम की वजह से रोहित जैसे मजबूत इंसान को भी आत्महत्या का रास्ता चुनना पड़ा। इसलिए हम इसे आत्महत्या नहीं बल्कि “हत्या” कहते हैं।
रोहित की आत्महत्या-हत्या के बाद उसके अंबेडकरवादी सहयोगियों ने जमकर विरोध प्रदर्शन किया, मायावती जी ने भी सबसे पहले सदन में इस मामले को गर्मजोशी से उठाया। पर इसके बाद एक नजारा यह भी देखने को मिला कि रोहित की आत्महत्या-हत्या तक नजर न आने वाले वामपंथी अचानक अपने बिल से बाहर निकल आते हैं और रोहित के समर्थन में विरोध प्रदर्शन, नारेबाजी शुरु कर देते हैं।
ब्राह्मणवादी मीडिया में भी अंबेडकरवादी लोगों के विरोध प्रदर्शन को कुचलकर वामपंथियों को हवा दे दी जाती है और उन्हें प्रमोट किया जाता है मानो रोहित की सच्ची लड़ाई वामपंथी ही लड़ रहे हो। आमजन को भी यही लगने लगता है कि कन्हैया जैसे वामपंथी सच्चे बहुजन हितैषी हैं।
लेकिन आज भी बहुत कम लोगों को पता होगा कि रोहित से जितने हिन्दुत्ववादी परेशान थे उतने ही वामपंथी कॉमरेड। रोहित ने हैदरावाद यूनिवर्सिटी में क्रांतिकारिता का आगाज वामपंथ के छात्र महासंघ “स्टूडेंन्ट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया” (SFI) से जरूर किया था पर आगे चल कर वामपंथ से बिल्कुल अलग होकर “अंबेडकर स्टूडेंन्ट्स एसोसियशन” (ASA) का हिस्सा बन गया था।
पर आजतक किसी भी वामपंथी में इतनी हिम्मत नहीं हुई कि वो बता सके कि आखिर रोहित ने वामपंथी छात्र महासंघ को क्यों छोड़ा?
रोहित की ऑनलाईन डायरी पर लिखी गई किताब “जाति कोई अफवाह नहीं” के अनुसार रोहित वामपंथ से सबसे ज्यादा इस बात से खिन्न था कि डॉ. अंबेडकर द्वारा बार-बार सवाल उठाए जाने के बाबजूद वामपंथ “जाति” को एक महत्वपूर्ण सामाजिक सवाल मानने को तैयार नहीं है। रोहित ने वामपंथियों के निजी क्षेत्र में आरक्षण की माँग का भी मजाक उड़ाते हुए कहा कि संबिधान में निर्धारित आरक्षण के सिद्धांत को वामपंथ ने अपनी सर्वोच्च संस्था “पोलित ब्यूरो” के सदस्यों के चुनाव में लागू नहीं किया तो उन्हें निजी क्षेत्र में आरक्षण की माँग करने का भी नैतिक अधिकार नहीं है।
“रोहित कभी खुद को मार्क्सवादी कहलाना उचित नहीं समझता था वो खुद को “अंबेडकरवादी” कहलाना पसंद करता था, जिसका मार्क्सवाद और समाजवाद के कुछ सिद्धांतों पर भरोसा था।”
रोहित का कहना यह भी था कि वामपंथ में दलित कम्यूनिस्ट को वामपंथी नेतृत्व में ऊपर आने का मौका नहीं दिया जाता है, उन्हें नजरअंदाज किया जाता है या निलबिंत कर दिया जाता है और कई बार उन्हें बदनाम तक किया जाता है। रोहित आगे कहता है कि भारत के बौद्धिक वर्ग ने अंबेडकर को सिर्फ ब्रिटिश समर्थक, अलगाववादी और अवसरवादी ही कहा है। लेकिन आज हम जानते हैं कि अंबेडकर और वामपंथी बुद्धिजीवी वर्तमान समाज में दो ध्रुवों पर खड़े हैं।
रोहित के लेखन से स्पष्ट हो जाता है कि वो भारतीय समाज की बहुत गहराई से समझ रखता था, उसने कहा है कि भारत का सारा इतिहास जाति पर आधारित है पर वामपंथियों के पास इसका न तो कोई जवाब है और न ही जाति के सवाल पर विचार करते। अगर भारतीय समाज एक भवन है तो जाति इसकी बुनियाद है। बुनियाद में परिवर्तन लाए वगैर देश का पुनर्निर्माण स्थाई नहीं हो सकता। रोहित ने भारत के संगठित वामपंथ की सबसे बड़ी समस्या उसका बौद्धिक वर्ग बताया है उसने कहा है कि यह वर्ग न तो कभी भूखा रहा है, न कभी शोषित रहा है और अपनी गद्देदार कुर्सियों से बिना हिले-डुले सामाजिक परिवर्तन की उम्मीद करता है।
रोहित कहता है कि वामपंथियों ने जातिव्यवस्था से लड़ने के लिए एक नया ना़य़ाब तरीका निकाला है कि जाति के बारे में बात मत करो। न हम इसके बारे में बात करेंगे, न इसे बढ़ावा मिलेगा। वामपंथी संगठनों ने जानबूझकर अपने कैडरों को जमीनी सच्चाई न बताकर नव-उदारवादी नीतियों, अंतर्राष्ट्रीय राजनीति और यूटोपिया के सपनों में उलझाये रखा है।
रोहित बाबासाहेब के एक बारंबार दोहराए जाने वाले कथन को उद्धृत करते हुए कहता है –
“अगर लेनिन का जन्म भारत में हुआ होता तो उन्होंने जाति की समस्या पर विचार जरूर किया होता”
भारतीय कम्यूनिस्टों को एक दिन जरूर पछतावा होगा, कि उन्होेंने जाति की समस्या जैसे सामाजिक सवालोंं को नजरअंदाज किया। उसी दिन अलग तरह की कम्यूनिस्ट विचारधारा का उदय होगा। तबतक वामपंथ, जो समाज के गरीब तबके की जिंदगी को बेहतर बनाने में योगदान नहीं करता, उस फैक्टरी की तरह काम करता रहेगा जिसमें उन्हीं गरीबों का इस्तेमाल ईधन के रूप में किया जाता है, जिसके वे प्रतिनिधि होने का दाबा करते हैं।
रोहित ने अपने इस लेख में कठोर शब्दों में वामपंथियों को चेतावनी देते हुए कहा है कि भारतीय वामपंथी प्रगतिशील तबके के साथ राजनीतिक, सामाजिक और नैतिक रूप से खड़े रहना चाहते हैं तो उन्हें “दलित चिंतन” अपनाना ही होगा।
अंत में मैं रोहित वेमुला के सोसाइड नोट से कुछ लाइन लिख रहा हूँ –
“इंसान की कीमत
कितनी कम लगाई जाती है
एक छोटी सी पहचान दी जाती है
फिर जिसका जितना काम निकल आये –
कभी एक वोट,
कभी एक आंकड़ा,
कभी एक खोखली सी चीज़
कभी माना ही नहीं जाता कि इंसान
आखिर एक जीवंत मन है
एक अद्भुत सी चीज़ है
जिसे तारों की धूल से गढ़ा गया है
चाहे किताबों में देख लो,
चाहे सड़कों पर,
चाहे उसे लड़ते हुए देख लो,
चाहे जीते-मरते हुए देख लो”
लेखक – सत्येंद्र सिंह
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