दलित महिला कारवां और डॉ. अम्बेडकर


‘दलित समाज ने कितनी प्रगति की है इसे मैं दलित स्त्री की प्रगति से तौलता हूं,’ जैसी गंभीर और विचारोत्तेजक व स्त्रियों के घोर पक्ष में की गई टिप्पणी के टिप्पणीकार डा. अम्बेडकर द्वारा स्त्रियों के पक्ष में किए गए कार्यों का अक्सर ऊपरी तौर पर दलित एवं गैर दलित साहित्यकारों द्वारा केवल वर्णन मात्र कर दिया जाता है, परन्तु उनमें यह गंभीर स्त्री चेतना कहां से आई उनके जीवन के इस सबसे महत्पूर्ण पहलू को चर्चा रहित छोड़ दिया जाता है। डॉ. अम्बेडकर के सम्पूर्ण जीवन दर्शन पर बात करें तो यह अतिश्योक्ति पूर्ण कथन नही माना जा सकता है कि स्त्री और दलित स्त्री उनके व्यक्तित्व व उनके दर्शन का अमिट हिस्सा है और यह स्त्री चेतना उनके परिवार, उनके आसपास, व विदेश में किए उनके अध्ययन व तरह-तरह के आन्दोलनों में जुड़ने से आई। निसन्देह उनके स्त्री दर्शन के विकसित होने का मूलाधार परिवार की महिलाओं की उनके उपर पड़ने वाली अमिट छाप भी है।

डॉ. अम्बेडकर जब मात्र छः वर्ष के थे तब उनकी मां गुजर गई। मां के अभाव में कटे दिन उनके मन में स्त्री जगत के लिए हमेशा-हमेशा के लिए महत्वपूर्ण स्थान बना गए। मां की मृत्यु के बाद बालक भीमराव का पालन-पोषण उनकी अपंग बुआ ने बडे़ मनोयोग से किया। हालाकिं वह शारीरिक अपगंता के चलते घर का कुछ भी काम नही कर सकती थी, पर बालक भीमराव को प्यार से गोद में छिपाकर वह उसे भरपूर दुलार तो देती ही थी। जो थोड़ी बहुत मां की ममता की कमी रही भी तो बालक भीमराव की दोनो बड़ी शादी-शुदा बहने तुलसी और मंजुला ने पूरी की। भीमराव की बुआ शरीर से बौने कद की होने के साथ उनकी पीठ पर बड़ा सा कूबड़ भी था। (समाजिक न्याय के पुरस्कर्ता डॉ. भीमराव अम्बेडकर, डॉ. बृजलाल वर्मा, पेज. 12) उस समय ऐसी कन्या के विवाह होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी अतः बालक भीमराव अविवाहित बुआ के प्यार भरे सान्धिय में पले। शादी-शुदा बहने मंजुला और तुलसी दोनो बारी-बारी से घर आकर गृहस्थी के साथ बालक आनन्दराव और भीमराव को पालन करती थी। बड़ी बहन तुलसी और बालक भीमराव के जीवन की बाल काटने की घटना का वर्णन अनेक पुस्तकों में मिलता है। बचपन में एक बार भीमराव और आनन्दराव जब बाल कटाने नाई के पास गए तो नाई ने उनके बाल काटने से इंकार कर दिया। तब दोनो भाई अत्यन्त दुखी हो आंखों में आंसू भर घर लौटे। बड़ी बहन तुलसी ने भीमराव को ढाढंस बंधाते हुए कहा- भीवा! तू तो बहुत बहादुर है। इस तरह क्यों रोता है? तू चिन्ता मत कर, मै तेरे बाल काटे देती हूं। इतना कहते हुए तुलसी ने भीवा को एक चबूतरे पर बिठा कैंची से उसके बाल काटे। (सचित्र भीम जीवनी, पृष्ठ 8, रचनाकार शान्त स्वरूप बौद्ध)

भीमराव बचपन में अपनी बुआ के साथ ही सोते थे, वे अपनी बुआ से साये की तरह चिपके रहतें थे। उधर भीमराव की पढ़ाई के बढ़ते खर्चे के चलते पिता बार-बार अपनी बेटियों को दहेज में दिये गहनों को गिरवी रख जैसे तैसे भीमराव की पढ़ाई करवा रहे थे। इतना ही नही, अपनी पुत्रियों के जेवर जो उन्होने विवाह में दिये थे लेकर गिरवी रख देते और उस पैसे भीम के लिए पुस्तक खरीदते। पेंशन मिलने पर वे धीरे-  धीरे सारा पैसा पुत्रियों को वापस कर देते। (समाजिक न्याय के पुरस्कर्ता डॉ. भीमराव अम्बेडकर, डॉ. बृजलाल वर्मा, पेज. 20)

डॉ. अम्बेडकर का मूल चिंतन है स्त्री चिंतन

बहनों और बुआ के प्यार ने बालक भीमराव को हमेशा के लिए स्त्रियों का मददगार बनाने में मदद की। भीमराव अम्बेडकर बचपन से लेकर अपने सम्पूर्ण जीवन भर नारी जाति की अदम्य हिम्मत, साहस, बहादुरी, त्याग, बलिदान, सेवा, कर्मठता से रोज-रोज रूबरू होते रहे। घर में अपनी बेबस बुआ को देखा था जिसकी उसकी अपंगता के कारण विवाह ना हो सका, वे उनके दुखों से वाकिफ थे। बाद में अपने दाम्पत्य जीवन में पत्नी रमाबाई के असहनीय दुखों और कष्टों को भी अनुभव किया। पास-पड़ौस में, गली बस्ती और देश में जगह-जगह घूमते हुऐ उन्होंने स्त्रियों की दुर्दशा देखी थी इसलिए बचपन से ही जातिवाद के खिलाफ लड़ने के साथ-साथ उनके मन में स्त्रियों के हित उनके पारिवारिक, समाजिक व धार्मिक शोषण के खिलाफ लड़ने की भावना जाग चुकी थी। डॉ. अम्बेडकर के स्त्री चिंतन को प्रखर बनाने में सबसे अधिक योगदान अगर किसी का कहा जा सकता है तो वह नाम उनके पिता, बुआ और बहनों के बाद केवल उनकी पत्नी रमाबाई का ही हो सकता है। अक्सर दलित लेखक बाबा साहब का जीवन वर्णन करते समय, उनके सघर्षों को बताते समय, उनको भीमराव से बाबा साहब बनाने वाली रमाबाई के योगदान की चर्चा करना भूल जाते हैं। रमाबाई दलितों के महानायक डॉ. अम्बेडकर नामक विशाल वृक्ष मजबूत जड़ थी, जो आंधी तूफानों से भरे संघर्ष पूर्ण दिनों में उन्हें अविचल रूप से थामें मजबूती से खड़ी रही। रमाबाई के मूक बलिदान ने दलित आन्दोलन में रक्त प्रवाह का कार्य किया है। रमाबाई और डा. अम्बेडकर का जीवन आदर्श दाम्पत्य जीवन तो नही पर समझदार पति-पत्नी का जीवन तो अवश्य ही कहा जा सकता है। डॉ. अम्बेडकर के पढ़ने की क्षुधा को अपने खून पसीने से एक कर, रात-दिन कमा कर, एकांकी जीवन जीते हुए, उपले पाथते हुए, रात-दिन घर में खटते हुए वह रमाबाई ही थी जिसने डॉ. अम्बेडकर के अन्दर ज्ञान की कभी न मिटने वाली प्यास को धनाभाव के कारण बुझने नहीं दिया। जिस समय रमाबाई का विवाह हुआ उस समय रमाबाई को पढ़ना नही आता था। डॉ. अम्बेडकर ने जिस तल्लीनता से रमाबाई को पढ़ाया, रमाबाई ने भी उतनी ही लगन और ईमानदारी से पढ़ना-लिखना सीखा। बहुत कम लोग जानते है कि बाबा साहब जब विदेश में होते थे तो रमाबाई उनको बराबर पत्र लिखा करती थी और डॉ. अम्बेडकर भी पढ़ाई की भारी व्यस्तता और धनाभाव के बावजूद उन्हें तुरन्त उत्तर दिया करते थे। रमाबाई अपने अथक प्रयासों एवं परिश्रम से डॉ. अम्बेडकर के मुक्ति संघर्ष में जुड़ी रही। अधिकतर लोग यह समझते है कि वह केवल आज्ञाकारी प्रतिव्रता स्त्री और कुशल परिवार चालक थी परन्तु उनके बारें में बहुत कम लोग ये जानते है कि उन्होने डॉ. अम्बेडकर के साथ दलित आन्दोलन तथा दलित हितो के लिए कंधें से कंधा मिलाकर काम किया। रमाबाई अक्सर डॉ. अम्बेडकर द्वारा किए जा रहे कार्यों पर बातचीत करती व अपनी उचित सलाह दिया करती थी। डॉ. अम्बेडकर उन्हें दलित समाज की सभाओं और खासकर दलित महिलाओं की सभा में अवश्य ले जाया करते थे। 29 जनवरी 1928 मुंबई में रमाबाई को दलित महिला की परिषद् में अध्यक्ष पद के लिए चुना गया और उन्होनें अध्यक्ष के पद को बड़ी बखूबी से संभाला। दलित वर्ग की बैठकों में रमाबाई जब डॉ. अम्बेडकर के साथ जाती तो बैठकों में आए दलित स्त्री-पुरूषों का उत्साह दुगुना हो जाता। इस परिवर्तन को डॉ. अम्बेडकर भी महसूस करते थे। चावदार तालाब यानि महाड़ सत्याग्रह के बाद सौभाग्य सहस्र बुद्धे और रमाबाई अम्बेडकर ने सवर्ण स्त्रियों की तरह दलित महिलाओं को साड़ी बांधना सिखाया।

डॉ. अम्बेडकर जब विदेश में पढ़ने गए तो वहां के स्वतन्त्र जीवन में उन्होनें स्त्रियों को चहुंमुखी विकास करते देखा तब उन्हे समझ में आया कि बिना स्त्री शिक्षा के कोई भी प्रगति अधूरी है। विदेश में होते हुए वहां की स्त्रियों को स्वतन्त्रतापूर्वक जीवन जीते हुए, चिंतन-मनन करते हुए, उनकी प्रगति देख उनकी स्त्री चेतना को धार मिली। 1913 में न्यूयार्क में पढ़ते हुए, डॉ. अम्बेडकर ने अपने पिता के मित्र को जवाब देते हुए पत्र में लिखा ‘यह गलत है कि मां-बाप बच्चों को जन्म देते है कर्म नही देते। मां-बाप बच्चों के जीवन को उचित मोड़ दे सकते है, यह बात अपने मन पर अंकित कर यदि हम लोग अपने लड़कों की शिक्षा के साथ ही लड़कियों की शिक्षा के लिए भी प्रयास करें तो हमारे समाज की उन्नति तीव्र होगी। इसलिए आपको नजदीक रिश्तेदारों में यह विचार तेजी से फैलाना चाहिए।’ (धनंजय कीर की पुस्तक डॉ. अम्बेडकर – लाईफ एण्ड मिशन से उद्धृत)

परिवार में दलित महिलाओं की स्थिति कैसी हो?

डॉ. अम्बेडकर एकमात्र ऐसे विश्वस्तरीय चिंतक है जिन्होने परिवार और समाज में स्त्री की स्थिति कैसी हो, इस पर गहन चिंतन-मनन किया। पुरूषों के साथ स्त्री को भी समानता व स्वतन्त्रता मिले, उसे समाजिक आजादी के साथ आर्थिक आजादी भी प्राप्त हो, परिवार में उसका दर्जा पुरूष के समान हो, इसके लिए उन्होने दलित गैर दलित स्त्रियों को समाज परिवर्तन के आन्दोलन में सक्रिय रूप से जुड़ने का आह्वान किया। दोनो जगत यानि घर और समाज में नारी की हीनतर स्थिति को देखकर उन्होने इस विषय पर खूब सोचा कि भारतीय स्त्री की स्थिति में क्रांतिकारी परिवर्तन कैसे आये। यह क्रांतिकारी परिवर्तन परिवार तथा समाज में नारी को विशेषाधिकार देकर ही किया जा सकता था। डॉ. अम्बेडकर का मानना था कि स्त्री तथा समाज की उन्नति, शिक्षा के बिना नही हो सकती। सुन्दर और सुशिक्षित व सभ्य परिवार के लिए आवश्यक है कि पुरूषों के साथ-साथ घर की स्त्रियां भी पढ़ी लिखी हो ताकि वे समाज परिवर्तन की प्रक्रिया में शामिल हो सके। समाज के परिवर्तन द्वारा ही स्त्रियों की मुक्ति सम्भव है। डॉ. अम्बेडकर का अनुभव जगत देश-विदेश दोनो था। दोनो जगत में स्त्रियों ने कितनी प्रगति की इसकी तुलना करने पर वह जमीन आसमान का अन्तर पाते थे। विदेशो में उन्होंने स्त्रियों को स्वस्थ वातावरण में पढ़ते-लिखते व उसकी प्रतिभा को विकसित होते देखा था, परन्तु भारत में हिन्दू स्त्री अनेक प्रकार की रूढ़ियों, अन्धविश्वासों व सामाजिक बन्धनों में जकड़ी थी। और हिन्दू स्त्री में दलित स्त्री की हालत तो और शोचनीय थी। घर और समाज में उनका मानसिक, शारीरिक, आर्थिक शोषण होता था। दलित स्त्री के लिए उसका परिवार किसी नरक से कम नही था। दलित परिवारों में स्त्री शिक्षा नाममात्र के लिए भी नही थी। उन्होनें विदेश में शिक्षित व खुशहाल स्त्री को देखा तो उन्हे उनकी खुशहाली का महत्व शिक्षा में निहित नज़र आया। डॉ. अम्बेडकर को विश्वास था कि शिक्षित होकर ही स्त्री अपने अधिकारों को छीन सकती है। डॉ. अम्बेडकर का मानना था कि परिवार में स्त्री शिक्षा ही वास्तविक प्रगति की धुरी है। जिस घर में पढ़ी लिखी स्त्री व मां हो उस घर के बच्चों का भविष्य अपने आप उज्जवल हो जाता है। स्त्री शिक्षा को डॉ. अम्बेडकर अत्याधिक महत्व देते हुए कहते है अगर घर में एक पुरूष पढ़ता है तो केवल वही पढ़ता है और यदि घर में स्त्री पढ़ती है तो पूरा परिवार पढ़ता है। डॉ. अम्बेडकर ने भारतीय साहित्य में प्राचीन से लेकर आधुनिक साहित्य के साथ-साथ विदेशी साहित्य का भी अच्छी प्रकार से अध्ययन मनन किया था। साहित्य अध्यययन के दौरान शिक्षित व स्वतन्त्र स्त्रियों उदाहरण के रूप में उनके सामने बुद्ध की थेरियों से लेकर सावित्री बाई फूले व उनकी कई महिला मित्र थीं जिन्होनें पढ़-लिख कर समाज परिवर्तन के लिए काम किया। इसलिए वह दलित स्त्री को शिक्षित करने के लिए प्रतिबद्ध थे। परिवार में औरत की स्थिति सुदृढ़ करने के लिए डॉ. अम्बेडकर ने शिक्षा के महत्व के साथ-साथ सामाजिक कुरीतियों जैसे बाल विवाह, बहु-पत्निवाद, देवदासी प्रथा आदि के खिलाफ भी अपनी जनसभाओं में बात रखी। परिवार में लड़की-लड़के का पालन-पोषण समान रूप से होना चाहिए। उन्होनें दलित परिवारों से अनुरोध किया कि वे अपने बच्चों की खासकर लड़कियों की शादी बचपन में ना करें। ‘पालक अपनी संतान की शादी कम उम्र में करके उनके जीवन को नरक ना बनाएं।’ डॉ. अम्बेडकर ने विवाह जैसे सवाल पर भी बातचीत की। ‘पत्नी कैसी होनी चाहिए इस बारें में पुरूषों का विचार जाना जाता है। वैसे ही पति कैसा हो इस बारें में पत्नी का मन जान लेना जरूरी है। स्त्री एक व्यक्ति है और उसे भी व्यक्ति स्वतन्त्रता की सुविधा होनी चाहिए। (धनंजय कीर की पुस्तक डॉ. अम्बेडकर – लाईफ एण्ड मिशन से) डॉ. अम्बेडकर भारतीय परिवारों में लड़कियों की सुदृढ़ स्थिति चाहते थे। परिवार में लड़के-लड़कियों का सही प्रकार से पालन तभी हो सकता था जबकि परिवार में बच्चे कम हो। भारतवर्ष में खुशहाल परिवार के लिए प्रचलित परिवार नियोजन का नारा आजादी के बाद का है परन्तु बाबा साहब ने स्त्री के संदर्भ में परिवार नियोजन के फायदे बहुत पहले ही देख लिए थे। वे ये भी जानते थे कि इस सब के लिए देश के युवा वर्ग को समझाने व उसको साथ लेने से ही परिवार को खुशहाल बनाया जा सकता है इसलिए उन्होने 1938 में विधार्थियों की एक सभा में बोलते हुए कहा ‘परिवार नियोजन की जबाबदारी स्त्री पुरूष दोनो की होती है ‘बच्चों का लालन पालन हम अच्छी तरह कर सकते हैं। कम संतान होने पर स्त्रियां अपनी शक्ति बाकी कामों में लगा सकती हैं।’ (धनंजय कीर की पुस्तक से) स्त्रियों की समानता और स्वतन्त्रता के संदर्भ में डॉ. अम्बेडकर बाकी चिंतको व समाज सुधारको से काफी आगे की समझ रखते थे। अन्य समाज सुधारक जहां नारी शिक्षा को परिवार की उन्नति व आदर्श मातृत्व को संभालने या नारी की स्त्रियोंचित गुणों के कारण ही उसकी उपयोगिता पर बल देते थे परन्तु नारी भी मनुष्य है उसके भी अन्य मनुष्यों के समान अधिकार है इस बात को स्वीकार करने में हिचकिचाते थे। उसकी इस मानवीय गरिमा को सर्वप्रथमतः आधुनिक युग में डॉ. अम्बेडकर ने ही स्थापित किया। वे चाहते थे कि पत्नी की स्थिति घर में दासी जैसी ना होकर उसकी हैसियत बराबरी की हो। उन्होने लड़कों के समान लडकियों को पढ़ाने के साथ-साथ उसका विवाह भी उचित उम्र में हो, इस पर बार-बार जोर दिया। इस विषय पर बोलते हुए डॉ. अम्बेडकर कहते हैं ‘शादी एक महत्पूर्ण जबाबदारी है। शादी करने वाली हर औरत को उसके पक्ष में खड़ा रहना चाहिए लेकिन उसको दासी नहीं बल्कि बराबरी के नाते या मित्र के तौर पर। यदि ऐसा करोगी तो अपने साथ समाज का भी अभ्युदय करोगी और अपना सम्मान बढ़ाओंगी। इस हेतु सभी स्त्रियों को पुरूष के बराबर हिस्सेदारी कर खुद को शासक की जमात बनाने हेतु प्रयास करना चाहिए। (धनंजय कीर की पुस्तक डॉ. अम्बेडकर – लाईफ एण्ड मिशन से) डॉ. अम्बेडकर महिलाओं को उसकी समाज द्वारा दी गई भूमिकाएं मां, पत्नी, बहन एवं उसके स्त्रियोंचित गुणों से इतर उसको पूर्ण स्वतन्त्र, स्वस्थ एवं प्रगतिशील कर्मठ मानवी के रूप में देखते थे। उनके जीवन दर्शन में निहित स्वस्थ प्रफुल्लित शिक्षित, समाजिक सरोकारों में भागीदार दलित और गैर दलित स्त्री अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान पर स्थापित थी।

दलित महिला कारवां और डॉ. अम्बेडकर

डॉ. अम्बेडकर का काल दलित महिलाओं की अपनी व समाज की स्वतन्त्रता समानता को लेकर की गई सक्रिय व संघर्षपूर्ण भागीदारी का स्वर्ण काल है। डॅा. अम्बेडकर के समय में चले दलित आन्दोलन में लाखों-लाख शिक्षित-अशिक्षित, घरेलू, गरीब मजदूर किसान दलित शोषित महिलायें जुड़ी। उन्होनें जिस निर्भीकता बेबाकी और उत्साह से दलित आन्दोलन में भागीदारी निभाई वह अभूतपूर्व थी। दलित महिला आन्दोलन और डॉ. अम्बेडकर के साथ महिला आन्दोलन की सुसंगत शुरूआत 1920 से मान सकते है हालांकि सुगबुगाहट सन् 1913 से ही हो गई थी। 1920 में भारतीय बहिष्कृत परिषद की सभा कोल्हापुर नरेश छत्रपति शाहू जी महाराज की अध्यक्षता में सम्पन्न हुई। इस सभा में पहली बार दलित महिलाओं ने भाग लेकर अपनी सक्रिय भूमिका निभाई। पहली बार दलित स्त्रियों ने शिक्षा के महत्व को समझते हुए इस सभा में सौ. तुलसाबाई बनसोडे और रूकमणि बाई ने घरेलू भाषा में लड़कियों की शिक्षा पर बात रखी उन्होने अपने विचार रखते हुए कहा कि लड़कियों की असली शक्ति शिक्षा ही है। इस परिषद में लड़कियों के लिए अनिवार्य और मुफत शिक्षा का प्रस्ताव पारित किया गया।

देश भर चल रहे दलित आन्दोलन के साथ दलित महिला आन्दोलन भी अपना आकार ले रहा था। 1920 से आरम्भ हुए दलित महिला आन्दोलन में दलित महिलाओं की सक्रिय भागीदारी बढ़ती जा रही थी। 20 जुलाई 1924 में मुबंई में आयोजित बहिष्कृत हितकारिणी सभा की स्थापना की गई। इस सभा की स्थापना का मुख्य उद्देश्य अस्पृश्यता के खिलाफ जंग छेड़ने के अलावा दलित बस्तियों में स्कूल व छात्रावास खोलने सम्बन्धी प्रयास कर दलित समाज में जागृति व चेतना पैदा करना था। बहिष्कृत हितकारिणी सभा की अधिसंख्य सभाएं जो जगह-जगह गांव, देहातों में आयोजित की जाती थी उनमें दलित महिलाएं लगातार उपस्थित रहती थीं। इस समय दलित महिलाएं अपने समाज और परिवार जनित पीड़ा को सार्वजनिक रूप से अभिव्यक्त कर रही थीं। पर उनकी अभिव्यक्ति अधिकतर गानों व स्वागत गान के रूप में ही होती थी। बहिष्कृत हितकारिणी सभा की मिटिगों में वेणुबाई भटकर और रंगबाई शुभरकर अपने मधुर कंठ से दलित पीड़ा की मार्मिक और संघर्षपूर्ण अभिव्यक्ति को गीतों में ढालकर मनमोहक स्वर में गाकर सबका मन मोह लेती थीं।

सन् 1924 में ही एक अत्यन्त क्रान्तिकारी घटना घटी जिसने दलित महिला आन्दोलन की सक्रियता एवं उसके विचारात्मक पक्ष को उभारने का भरपूर मौका दिया। वह क्रांतिकारी घटना थी एक दलित महिला द्वारा दलित बच्चियों के लिए विद्यालय स्थापित करना। उच्च शिक्षित दलित महिला जाईबाई चौधरी जो बाद में सशक्त दलित महिला नेता के स्थापित हुई। उन्होने 1924 में चोखा मेला कन्या पाठशाला आरम्भ की। जाईबाई चौधरी स्वंय बहुत ही मुसीबतों से पढ़-लिख पाई थीं। जाईबाई चौधरी घर व समाज का तीव्र विरोध सहकर शिक्षिका बनी थी। जाई बाई चौधरी शिक्षिका के साथ-साथ एक जागरूक लेखिका एंव अच्छी वक्ता भी थी। जाईबाई चौधरी बाबा साहब के शिक्षिओं से प्रभावित उनकी पक्की अनुयायी थी। जाईबाई चौधरी ने स्त्री शिक्षा को अत्यधिक महत्वपूर्ण मानते हुए सर्वप्रथम नारी को शिक्षित करने पर बल दिया। जाईबाई चौधरी के अथक प्रयासों से दलित महिला आन्दोलन की माला में संघर्ष का एक मोती और जुड़ गया।

मोहपा में ‘मध्याप्रान्त, वराड महार परिषद’23-24 फरवरी, 1924 में ही आयोजित की गई। ‘इस सभा में एक ब्राह्मण वक्ता ने कहा कि महारों को कटा हुआ मांस नही खाना चाहिए परन्तु उनका मृत मांस खाने में कोई हर्ज नही है। ‘ब्राह्मण वक्ता की इस बात पर वेणुबाई भटकर ओर रंगुबाई शुभरकर ने खूब धुनाई की।’ (आम्ही इतिहास घड़वला- उर्मिला पवार, मिनाक्षी मून) महिलाओं की इस सभा में दलितों ने यह प्रण लिया कि अब अस्पृश्य लोग हिन्दुओं पर निर्भर नही रहेंगें और अपनी मुक्ति के रास्ते खुद खोजेगें। इस सभा के आखिर में दो प्रस्ताव पारित किए गए पहला यह कि अस्पृश्यता के खिलाफ सरकारी कार्यवाही होनी चाहिए। दूसरा सरकार का ध्यान शिक्षा की और खींचना चाहिए।

सन् 1920 लेकर 1924 तक दलित महिला आन्दोलन अपनी मंथर गति से चलता हुआ स्त्री शिक्षा और अस्पृश्यता के मुद्दे पर समाज का ध्यान खींचता रहा। 1927 का साल दलित आन्दोलन के साथ-साथ दलित महिला आन्दोलन के लिए भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है। सन् 1927 के अन्त में बाबा साहब द्वारा चलाये गए महाड़ सत्याग्रह की परिणति ‘मनुस्मृति दहन’ और ‘चावदार तालाब का पानी पीने’ से हुई। पहली घटना पानी, जिसके लिए दलित स्त्रियां रोज-रोज बेइज्जती सहती थी, दूसरे मनुस्मृति जिसके कारण स्त्री का जीवन नरक हो गया था, पानी का दलित महिलाओं द्वारा उपयोग होना, व मनु के विधान को जलाया जाना इन दोनो घटनाओं ने दलित महिलाओं के मानसिक, वैचारिक, बौद्धिक और सामाजिक रूप में उसके जीवन की कायापलट ही कर दी। मनुस्मृति दहन के कारण एक तो बाबा साहब स्त्रियों सबसे बड़े हितैषी कहलाए दूसरे वे हितैषी होने साथ दलित महिला आन्दोलन के वैचारिक महानायक की पदवी पर हमेशा-हमेशा के लिए आसीन हो गए। दलित स्त्री अब मंचों पर खुलकर बोलने लगी। वह स्वतन्त्रता से सोचने लगी। सभाओं में दलित महिलाओं की बढ़ती भागीदारी से डॉ. अम्बेडकर द्वारा चलाएं जा रहे दलित आन्दोलन को ताकत मिली और उसमें तेजी आ गई। दलित महिलाएं और उनकी नेत्रियां गली-गली गांव-गांव घूमते हुए सभाएं लेने लगी और दलित महिलाओं को सामाजिक, राजनैतिक व आर्थिक रूप से संगठित करने लगी।

25 दिसम्बर, 1927 को चावदार तलाब के महाड़ सत्याग्रह के ऐतिहासिक सम्मेलन में ढाई हजार दलित औरतों ने ‘मनुस्मृति दहन’ में शामिल होकर हिन्दू धर्म के स्त्री विरोधी कानून को मानने से इंकार कर दिया। इसी सभा में दलित महिलाओं की भारी संख्या में उपस्थिति देखकर डॉ. अम्बेडकर ने उनके पक्ष में अपना ऐतिहासिक भाषण दिया। बाबा साहब ने कहा ‘‘स्त्रियों को गृहलक्ष्मी ही क्यों होना चाहिए? मन में उंची महत्वकांक्षा रखो। ज्ञान और विद्या पर केवल पुरूषों का ही अधिकार नही है, वह स्त्रियों के लिए भी अति आवश्यक है। यदि तुम्हें आगे की पुश्ते सुधारनी है तो तुम्हे लड़कों के साथ-साथ लड़कियों को भी शिक्षा देनी होगी। घर में पति अगर मरे हुए जानवर का मांस लाए तो उससे कहो कि ये सब मेरे घर में नही चलेगा। गले में इतनी वजनी मालाएं और हाथों में कोहनी तक के कड़े और कंगन यह सब तुम्हें अस्पृश्य करके पहचानने की निशानी है। (धनंजय कीर की पुस्तक डॉ. अम्बेडकर – लाईफ एण्ड मिशन से) इस ऐतिहासिक भाषण का दलित महिलाओं पर इतनी तीव्रता से असर हुआ कि उन्होनें उसी सभा में हाथ तक भरे कड़े, गले में बड़ी वजनी मालाएं उतार दी और सभा में उपस्थित सौभाग्य सहस्त्र बुद्धे व रमाबाई अम्बेडकर से दलित महिलाओं ने समाज की अन्य वर्ग की महिलाओं की तरह साड़ी पहनना सीख लिया। डॉ. अम्बेडकर द्वारा दलित स्त्रियों को 1927 में दिए गए भाषण से दलित महिलाएं आत्मविश्वास से भर उठी। वे अब डॉ. अम्बेडकर की प्रत्येक सभा में जोश-खरोश के शामिल होने लगी व डॉ. अम्बेडकर भी प्रत्येक सभा के बाद दलित महिलाओं की सभा अलग से लेने लगे। वे दलित महिलाओं से बड़े प्यार से बड़े भाई या स्नेह पूर्ण पिता की तरह बात करते थे। 1927 तक अम्बेडकरवादी दलित महिला आन्दोलन का मुख्य मुद्दा शिक्षा, सफाई, संगठन और संघर्ष था।

दलित महिलाओं की केवल अपने घरों में ही स्थिति खराब नही थी अपितु फैक्टियों और खेतों खलिहानो में तो उनको वर्कर तक नही माना जाता था। गर्भावस्था की हालत में उन्हें नौकरी से निकाल दिया जाता था। उनको पूरा वेतन नही मिलता था। उनके काम के घंटे भी निश्चित नहीं थे। 28 जुलाई 1928 को मुंबई विधान परिषद में कारखाना व अन्य सरकारी/गैर सरकारी संस्थानों में कार्यरत मजदूर महिलाओं के पक्ष में प्रसूति अवकाश सुविधा सम्बन्धी बिल पर अपने सशक्त विचार रखते हुए डॉ. अम्बेडकर ने कहा कि ‘महिलाओं को प्रसूति अवकाश व पूरा वेतन प्राप्त करना राष्टीय हित में एक महत्वपूर्ण कदम है। मैं इस बात से सहमत हूं की इससे शासन पर भारी आर्थिक बोझ पड़ेगा लेकिन फिर भी मैं वेतन कटौती का पक्षधर नही हूं। यह महिलाओं का उनका अपना अधिकार है जिसकी प्राप्ति उन्हें होनी चाहिए। ’’ (महिला आन्दोलन में दलित महिलाओं का योगदान- मोहन दास नैमिश्राय) दलित महिला आन्दोलन का सबसे महत्वपूर्ण एवं सशक्त पक्ष यह भी है कि दलित महिला आन्दोलन समाजिक प्रश्नों को जितना महत्व देता है उतना ही महत्व आर्थिक और राजनैतिक सवालों को भी देता है। दलित महिलाओं ने अपने अस्मिता संघर्ष के साथ मजदूर आन्दोलन के संघर्ष और उनके मुद्दों को अपने आन्दोलन का अहम हिस्सा बना लिया।

1928 में ही मुंबई में महिला मंडल की स्थापना भी की गई और इस महिला मंडल की प्रथम अध्यक्षा डॉ. अम्बेडकर की पत्नी रमाबाई को चुना गया। 1928 में बने महिला मंडल ने आगे चलकर दलित महिलाओं की सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक स्थिति संभालने व उसको आगे ले जाने की दिशा में अमूल्य योगदान दिया। चावदार तालाब को सार्वजनिक रूप से खुलवाना, व पानी के प्रतीक के रूप में दलित अस्मिता की लड़ाई को आगे बढ़ाने की कड़ी में एक अन्य महत्वपूर्ण आन्दोलन है दलित महिलाओं द्वारा चलाए गए पूना के पार्वती मन्दिर में प्रवेश के लिए संघर्षपूर्ण सत्याग्रह। इस सत्याग्रह में दलित महिलाओं ने बढ़-चढ़कर भाग लिया। 12 अक्टूबर 1929 को डॉ. अम्बेडकर और दलित महिला नेता तानुबाई के नेतृत्व में जब हजारों दलित महिलाएं एक जुलूस की शक्ल में मन्दिर प्रवेश करने लगी तो सवर्णो ने इन पर लाठी डंडो और पत्थरों से हमला कर दिया जिसमें अनेक दलित स्त्री पुरूष घायल हुए। इस आन्दोलन में भाग लेने वाली दलित महिलाओं की संख्या महाड़ सत्याग्रह से भी अधिक थी। पार्वती मन्दिर के प्रवेश सत्याग्रह का नेतृत्व करने वाली तानुबाई आगे चलकर सुप्रसिद्ध दलित महिला नेता के रूप में विख्यात हुईं।

सन् 1930 से 1934 तक का काल बाबा साहब और दलित महिला आन्दोलन के लिए उपलब्धि भरा काल कहा जा सकता है- इस कालावधि में कई अभूतपूर्व घटनाएं घटी। एक तरफ तो नासिक के कालाराम मन्दिर प्रवेश का आन्दोलन 2 मार्च 1930 से लेकर 1934 तक पूरे चार साल लगातार चला। इस आन्दोलन में महाराष्ट, गुजरात, कर्नाटक और अन्य राज्यों व देश के विभिन्न भागों से 10 हजार से अधिक महिला पुरूष सत्याग्राही शामिल हुए, दूसरे इन सत्याग्राहियों की पूरी देखभाल जैसे खाने-पीने – ठहरने आदि का इंतजाम पहली बार दलित महिलाओं ने जिस निष्ठा और मेहनत से किया वह अपने आपमें एक मिसाल है। इस आन्दोलन द्वारा दलित महिलाओं की चेतना कितने प्रखर रूप में विकसित हो गई थी इस बात को समझने के लिए केवल एक उदाहरण ही काफी है। जब 1 अप्रैल 1930 में मन्दिर प्रवेश के दौरान पुजारी द्वारा दलित महिलाओं को पीछे धक्का देने पर एक दलित महिला ने उस पुजारी के मुंह पर सनसनाता थप्पड़ रसीद कर दिया  (फड़के पं. दि. कृत कालाराम मन्दिर प्रवेश सत्याग्रहद) कालाराम मन्दिर सत्याग्रह में  महिलाओं की सभा में भाग लेते हुए राधा बाई बडाले नामक एक सत्याग्राही ने अपने ओजस्वी भाषण में कहा ‘ हमें मंदिरों मे जाने का , पनघट से पानी पीने का भरने का अधिकार मिलना चाहिए। यह हमारा समाजिक हक है। शासन करने का राजनैतिक अधिकार भी हमें मिलना चाहिए। हम कठोर सजा  की चिन्ता नही करतीं। हम देश भर की जेलों को भर देंगें। हम लाठी-गोली खाएंगे। हमें हमारा हक चाहिए। योद्धा कभी अपनी जान की चिन्ता नहीं करता। गुलामी की जिन्दगी से मृत्यु बेहतर है। हम अपनी जान दे देगें मगर अधिकार छीन कर रहेंगे। ’ (डॉ.अम्बेडकर और महिला जागरण-डॉ कुसुम मेधवाल पृष्ठ 91) कालाराम मन्दिर प्रवेश आन्दोलन में रमाबाई अम्बेडकर, सीताबाई, गीताबाई गायकवाड़, रमाबाई गायकवाड़, रमाबाई जाधव, तुलसी रामजीकाले की माताजी, अमृतराव शरण खाबें की माताजी सौ. ताराबाई, यमुना बाई, भिकूबाई, सुमना राव, ठकूबाई सालवे, सरूबाई भालेराव, फुंदाबाई धनाजी दाणी, गंगूबाई पगारे और अनेक अनाम-अज्ञात औरतों ने भाग लिया। जिसमें अन्ततः डॉ. अम्बेडकर और उनकी महिला साथियों की जीत हुई। 1930 में ही बाबा साहब ने नागपुर में अखिल भारतीय शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन की स्थापना के साथ ही ‘दलित महिला परिषद’ भी आयोजित की। इस सभा में दस हजार से अधिक महिलाओं ने भाग लिया। इस सभा की अध्यक्षा सुलोचना ठोगरे तथा स्वगताध्यक्ष कीर्ति पाटिल और मुख्य सचिव इन्दिरा पाटिल थी। यह सभा अत्यन्त सफल रही। नागपुर में 8 से 10 अगस्त 1930 में अखिल भारतीय दलित कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन में दलित महिलाओं का प्रतिनिधित्व करते हुए जाईबाई चौधरी ने कहा ‘लड़कियों को भी लड़कों के समान पढ़ने के पूरे-पूरे अवसर उपलब्ध कराने चाहिए। एक लड़की की शिक्षा से से पूरा परिवार शिक्षित हो जाता है। ’कांग्रेस के इस पहले अधिवेशन के दौरान ही सगुणाबाई गावेकर की अध्यक्षता में दलित महिला परिषद का आयोजन हुआ जिसमें दलित महिलाओं की शिक्षा पर विशेष जोर दिया गया। (कुसुम मेघवाल भारतीय नारी के उद्धाराक डॉ. अम्बेडकर पृष्ठ 91 से उद्धृत)

पहली और दूसरी गोलमेज सभा में पृथक निर्वाचन क्षेत्र और पृथक प्रतिनिधित्व के सवाल पर बाबा साहब ने दलित और दलितो हितों की जोरदार वकालत की। उस समय कांग्रेस व मीडिया द्वारा डॉ. अम्बेडकर व दलित महिला-पुरूष कार्यकर्ताओं एंव पूरे दलित समाज के प्रति घृणा का वातावरण पैदा कर दिया गया था। परन्तु उस घृणापरक और हिंसात्मक माहौल में भी दलित महिलाएं डॉ. अम्बेडकर के समर्थन में सभाएं करती रहीं। 14 अगस्त 1931 को सर कौब्बजी जहांगीर हाल में महिलाओं ने रांउड टेबल कांफ्रेस में भाग लेने के लिए डॉ. अम्बेडकर के प्रस्थान से पूर्व संध्या पर एक विदाई समारोह आयोजित किया। एक वृद्ध महिला को संम्बोधित करतें हुए डॉ. अम्बेडकर ने कहा, ‘यदि तुम अपनी गुलामी को समूल उखाड़ फेंकने के लिए दृढ़ संकल्प हो तथा उसके लिए सारी कठिनाईयां और मुसीबतें बरदाश्त करने के लिए कटिबद्ध हो, तो इस जिम्मेदारी के कार्य में समर्थ होने पर जो भी श्रेय और सफलता प्राप्त होगी वह सब तुम्हारी होगी।’’ (सामाजिक न्याय के पुरस्कर्ता डॉ. भीमराव आम्बेडकर डॉ. ब्रजलाल वर्मा पृष्ठ 202) बाबा साहब के गोलमेज सम्मेलन से वापस आने के बाद 1932 में कामठी में हुई परिषद में भी 200 से अधिक महिलाएं शामिल हुई। उस समय सौ. शाताबाई औगले और अंजनी बाई देशभ्रतार आदि दलित महिला नेताओं ने अपने जोरदार जोशीले भाषणों द्वारा गोलमेज परिषद में अम्बेडकर के रोल को समर्थन दिया व उनकी भूरी-भूरी सराहना की। इसी अधिवेशन में कुमारी विरेन्द्राबाई तीर्थकर को प्रान्तीय महिला संगठन का सचिव बनाया गया।

लेखक  – अनिता भारती (अनिता भारती चर्चित दलित लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता है। )

यह लेख पहले दायरा पर छापा गया था।

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1 comment

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  1. 1
    Dr.Berwa

    A great historical review of Dr.Ambedkar and women’s liberation.
    How ever missing link is,”There is hardy any inspiring women at a mass level.There were great expectations with Bahanji Mayawati but she is too busy in political issue unlike her mentor late Kanshi Ram ji, who really brought Dalt-Bahujan together and threw shivers along the spines of Bramahans ,but what happened NOW.Now every body complaints as to how bas RSS/BJP is i.e “Chest beating” as my frend Mr. Chandra Bhan Prasad used to call.We are loosing Dr.Ambedkar’s mission and message.His teachings are true antidote to Brahamansim.Dalit-Bahujan wants to do things differently but they have limited resource, our Dalit men leaders are no where seen when it comes to share the Dr. Ambedkar;s caravan moving forwards.They have licked RSS/BJP feet NOW to get ministries and other perks like a dog licks his masters feet.

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