तथाकथित सवर्ण बुद्धिजीवियों खासकर वामपंथियों के द्वारा “बुद्ध” पर आक्षेप लगाऐ जाते हैं


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तथाकथित सवर्ण बुद्धिजीवियों खासकर वामपंथियों के द्वारा “बुद्ध” पर आक्षेप लगाऐ जाते हैं कि –

1- बुद्ध अपनी बीबी को बिना बताऐ चुपचाप राजमहल से निकल जाते हैं
2- बुद्ध हिन्दुओं की भांति पुनर्जन्म पर विश्वास करते थे
3- बुद्ध अति-अंहिसावादी थे

जबकि हकीकत यह है कि बुद्ध के विषय में ये तीनों ही बातें झूठी हैं।

सबसे पहले आरोप पर आते हैं बुद्ध अपनी बीबी को बिना बताऐ ही चुपचाप निकल गऐ जबकि सच यह है कि बुद्ध कभी भी अपनी बीबी को बिना बताये चुपचाप घर से नहीं निकले बल्कि शाक्यों और कोलियों के बीच होने वाले भयानक युद्ध के विरोध में थे। इस वजह से उन्होंने अपने ही शाक्यसंघ के मंत्रीमंडल से बगावत कर युद्ध का हिस्सा बनने से साफ मना कर दिया।

इसके बाद शाक्यसंघ ने उनके सामने तीन शर्तें रख दीं –

(1) सेना में भर्ती होकर युद्ध में भाग लेना,
(2) फांसी पर लटकना या देश निकाला स्वीकार करना और
(3) अपने परिवार के लोगों का सामाजिक बहिष्कार और उनके खेतों की जब्ती के लिये तैयार हो जाना।

इनमें से उन्होंने प्रव्रज्या (पबज्जा) धारण कर परिव्राजक बनकर देश छोड़कर जाने वाली बात को स्वीकार लिया।
यह सूचना उनके राजमहल पहुँचने से पहले ही उनके परिजनों तक पहुँच चुकी थी। जब वो अपनी पत्नी “यशोधरा” के कक्ष में पहुँचे तो उनकी पत्नी ने जवाब दिया –

“यदि मैं ही आपकी स्थिति में होती तो मैं भी इसके अतिरिक्त और क्या करती? निश्चय से मैं कोलियों के विरुद्ध छेड़े जाने वाले युद्ध के पक्ष में नहीं होती। आपका निर्णय उचित है। मेरी सहमति और समर्थन अापके साथ है। मैं भी आपके साथ पबज्जित हो जाती। यदि मैं पबज्जित नहीं हो पा रही हूँ तो इसका एक मात्र कारण यही है कि अभी मुझे राहुल (पुत्र) का पालन-पोषण करना है।”

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(बुद्ध और उनका धम्म, पृष्ठ – 48, 49, 52)

दूसरा आरोप लगाते हैं कि बुद्ध हिन्दुओं की तरह पुनर्जन्म पर विश्वास रखते थे यह भी पूर्णतः गलत है, हकीकत यह है कि बुद्ध “नाम-रूप की पुनरुत्पत्ति में विश्वास रखते थे, ‘आत्मा’ के पुनर्जन्म में नहीं।

(बुद्ध और उनका धम्म, पृष्ठ – 233, 235)

तीसरा आरोप लगाते हैं कि बुद्ध अति-अंहिसावादी थे यह बात भी सरासर गलत है जबकि सच यह है कि बुद्ध हिंसा के विरुद्ध तो थे पर न्याय के पक्ष में भी थे और जहाँ न्याय के लिऐ बल प्रयोग अपेक्षित होता है वहाँ उन्होंने बल प्रयोग करने की अनुमति भी दी है। यह बात उन्होंने वैशाली के सेनाध्यक्ष सिंहा सेनापति के साथ वार्तालाप में स्पष्ट रूप से समझाई है।

सिंहा ने बुद्ध से प्रश्न किया –

आप अहिंसा का उपदेश देते व प्रचार करते हैं। क्या आप एक दोषी को दंड से मुक्त करने व स्वतंत्रता देने का उपदेश देते व प्रचार करते हैं? क्या आप यह उपदेश देते हैं कि हमें अपनी पत्नियों, अपने बच्चों तथा अपनी संपत्ति को बचाने के लिऐ, उनकी रक्षा करने के लिऐ युद्ध नहीं करना चाहिऐ? क्या अहिंसा के नाम पर हमें अपराधियों के हाथों कष्ट झेलते रहना चाहिऐ?

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क्या तथागत उस समय भी युद्ध का निषेध करते हैं, जब वह सत्य तथा न्याय के हित में हो?

बुद्ध का उत्तर –

मैं जिस बात का प्रचार करता हूँ व उपदेश देता हूँ, आपने उसे गलत ढंग से समझा है। एक अपराधी व दोषी को दंड अवश्य दिया जाना चाहिऐ और एक निर्दोष व्यक्ति को मुक्त व स्वतंत्र कर दिया जाना चाहिऐ। यदि एक दंडाधिकारी एक-एक अपराधी को दंड देता है, तो यह दंडाधिकारी का दोष नहीं है। दंड का कारण अपराधी का दोष व अपराध होता है। जो दंडाधिकारी दंड देता है, वह न्याय का ही पालन कर रहा होता है। उस पर अहिंसा का कलंक नहीं लगता। जो व्यक्ति न्याय तथा सुरक्षा के लिए लड़ता है, उसे अहिंसा का दोषी नहीं बनाया जा सकता। यदि शांति बनाए रखने के सभी साधन असफल हो गऐ हों, तो हिंसा का उत्तरदायित्व उस व्यक्ति पर आ जाता है, जो युद्ध को शुरू करता है। व्यक्ति को दुष्ट शक्तियों के समक्ष आत्मसमर्पण नहीं करना चाहिऐ। यहां युद्ध हो सकता है, परंतु यह स्वार्थ की या स्वार्थपूर्ण उद्देश्यों की शर्तों के लिए नहीं होना चाहिऐ।

(बुद्ध और कार्ल मार्क्स)

Author – Satyendra Singh

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