बाबासाहेब अंबेडकर का संघर्ष और उनके दवारा शुरू की गयी पत्रिकाएं
डॉ. अंबेडकर ने 31 जनवरी, 1920 को “मूकनायक” नामक पत्रिका को शुरू किया था । इस पत्रिका के अग्रलेखों में अंबेडकर जी ने दलितों के तत्कालीन आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक समस्याओं को निर्भीकता से उजागर किया। यह पत्रिका उन मूक-दलित, दबे-कुचले लोगों की आवाज बनकर उभरी जो सदियों से सवर्णों का अन्याय और शोषण चुपचाप सहन कर रहे थे।
हालांकि इस पत्रिका के प्रकाशन में “शाहू जी महाराज” ने भी सहयोग किया था, यह पत्रिका महाराज के राज्य में कोल्हापुर में ही प्रकाशित होती थी। चूंकि महाराज अंबेडकर की विद्वता से परिचित थे जिस वजह से वो उनसे विशेष स्नेह भी रखते थे।
एक बार तो शाहू जी महाराज ने नागपुर में “अखिल भारतीय बहिष्कृत समाज परिषद” की सभा संबोधित करते हुऐ भी कह दिया था कि – “दलितों को अब चिंता करने की जरूरत नहीं है, उन्हें अंबेडकर के रूप में ओजस्वी विद्वान नेता प्राप्त हो गया है”
इसी सभा में अंबेडकर ने निर्भीकतापूर्वक दलितों को संबोधित करते हुऐ कहा था कि- “ऐसे कोई भी सवर्ण संगठन दलितों के अधिकारों की वकालत करने के पात्र नहीं हैं जो दलितों द्वारा संचालित न हो। उन्होंने स्पष्टतः कहा था कि दलित ही दलितों के संगठन चलाने के हकदार हैं और वे ही दलितों की भलाई की बात सोच सकते हैं।”
जबकि इस सम्मेलन में गंगाधर चिटनवीस, शंकरराव चिटनवीस, बी.के. बोस, मिस्टर पंडित, डॉ. पराजंपे, कोठारी, श्रीपतराव शिंदे इत्यादि तथाकथित सवर्ण समाज-सुधारक भी मौजूद थे।
1920 में हुऐ इस त्रिदिवसीय सम्मेलन की कार्यवाही, भाषण, प्रस्तावों आदि का वृतांत भी 5 जून, 1920 को “मूकनायक” पत्रिका के दसवें अंक में प्रकाशित हुआ था।
इसके बाद सितम्बर, 1920 में डॉ. अंबेडकर अपनी अर्थशास्त्र और बेैरिस्टरी की अधूरी पढ़ाई पूरी करने के लिये पुनः लंदन गऐ। तब उनके पास साढ़े आठ हजार रुपये थे। जिसमें 1500 रुपये की शाहू जी महाराज ने उन्हें आर्थिक सहायता दी थी जबकि 7000 रुपये उन्होंने स्वंय एकत्रित किये थे।
लंदन पहुंचकर उन्होंने “लंदन स्कूल ऑफ इकॉनोमिक्स एंड पोलिटीकल साइंस” में एम.एस.सी. और ग्रेज इन में बैेरिस्टरी के लिऐ एडमिशन लिया। उसके बाद वो पूरे दिन बारी-बारी से लंदन विश्वविद्यालय पुस्तकालय, गोल्डस्मिथ अर्थशास्त्र पुस्तकालय, ब्रिटिश म्यूजियम पुस्तकालय व इंडिया ऑफिस लायब्रेरी में ही अध्ययन किया करते थे।
जून, 1921 में उन्हें लंदन विश्वविद्यालय से उन्हें अर्थशास्त्र में एम.एस.सी. की डिग्री प्राप्त हुई। 1922-23 में वो कुछ माह जर्मनी के “बोन विश्वविद्यालय” में भी अर्थशास्त्र का अध्ययन करने गऐ। मार्च, 1923 में उन्होंने “रुपये की समस्या-इसके उद्गम और समाधान” पर डी.एस.सी. की डिग्री प्राप्त की।
डॉ. अंबेडकर का यह शोध विश्व के अर्थशास्त्रियों की दृष्टि से महान अर्थशास्त्रीय शोध था। दिसम्बर, 1923 में लंदन में पी.एस. किंग एंड कंपनी ने भी इसको प्रकाशित किया था। इसके अलावा उन्होंने 1923 में ही बेैरिस्टरी की परीक्षा भी पास करली।
डॉ. अंबेडकर विदेश में रहते हुऐ भी शोषित-वंचितों के लिऐ बहुत चिंतित रहते थे, उन्होंने लंदन प्रवास में वहां के पुस्तकालयों में तमाम शूद्रों/अछूतों पर सामाग्री का ध्यानपूर्वक अवलोकन किया। यहां तक कि भारत के दलितों के संबंध में लंदन में भारत सचिव ई. एस. मॉन्टेग्यू से भी मिलकर उन्होंने विचार-विमर्श किया।
विदेश से अपनी शिक्षा पूर्ण करके जब वो वापस भारत आये तो उन्होंने फिर से शोषित-वंचितों के अधिकारों की लड़ाई लड़नी शुरु करदी, 1927 में उन्होंने एक “बहिष्कृत भारत” नामक पत्रिका भी निकालनी शुरु करदी। जिसमें उन्होंने लेखों के जरिये सवर्णों द्वारा किये जाने वाले अमानवीय व्यवहार का विरोध करने के लिऐ प्रेरित किया।
डॉ. अंबेडकर के सम्पूर्ण जीवन पर दृष्टि डाली जाये तो उनका सारा जीवन ही शोषित-वंचित के लिऐ समर्पित रहा है। शोषित-वंचितों के अधिकारों के लिऐ उनके संघर्ष ने पूरे भारत में नवजागरण का उद्घोष कर दिया और वो मानवता की मिसाल गये।
लेखक – सत्येंद्र सिंह
When Babasaheb went to London in 1920, who was then editor of Mooknayak after Babasaheb?
Very nice good job