इंसाफ की तराजू का ऊंची जातियों की तरफ झुकाव


कुछ लोग कहते हैं कि इंसाफ की तिजोरी तथ्य, परिस्थिति और कानून पर अपनी कड़ी नजर रखती हैं, किसी व्यक्ति विशेष की ओर नहीं। लेकिन अगर भारतीय न्यायपालिका का रवैया देखा जाए तो यह बात केवल लेख, लेखनी और किताबों में लिखे जाने या फिर कुछ न्यायाधीशों एवं बुद्धिजीवियों द्वारा सार्वजनिक मंचों पर भाषण देने के योग्य प्रतीत होती है। आप जमीनी परिदृश्य को देखने पर यह पाएंगे कि इंसाफ की तिजोरी स्वघोषित ऊंची जातियों की तरफ झुकती हुई नजर आती है। जाति को केंद्र में रखते हुए इंसाफ का चरित्र बदल दिया जाना सबसे बड़ा अन्याय है।

भारतीय न्यायपालिका के लिए बेहद शर्म की बात है कि गैंगरेप के आरोपी गायत्री प्रजापति को जमानत देने के लिए 10 करोड़ की रिश्वतखोरी को अंजाम देने वाला न्यायाधीश ओ0पी0 मिश्रा जेल से बाहर हैं किन्तु न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने वाले लोकप्रिय न्यायाधीश जस्टिस सी0 एस0 कर्णन जेल की सलाखों के अंदर हैं। सर्वोच्च न्यायालय की नजर में चूंकि जस्टिस कर्णन ने न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार पर सवाल उठाया इसलिए जस्टिस कर्णन अपराधी हैं। क्या अन्य न्यायाधीश अपराधी नहीं हो सकते हैं? न्यायपालिका अथवा न्यायाधीशों पर सवाल उठाया जाना अदालत की अवमानना है?

अब इस खबर पर ध्यान दें कि इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अपनी एक जांच रिपोर्ट में इस बात की पुष्टि की है कि ‘अतिरिक्त जिला एवं सेशन जज ओ0पी0 मिश्रा को उनके रिटायर होने से ठीक 3 सप्ताह पहले ही पोस्को (प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रन फ्रॉम सेक्सुअल ऑफेंस) जज के रूप में तैनात किया गया था। जस्टिस ओ0पी0 मिश्रा ने ही गायत्री प्रजापति को 25 अप्रैल को रेप के मामले में जमानत दी थी। ओ0पी0 मिश्रा की नियुक्ति नियमों की अनदेखी करते हुए और इनकी नियुक्ति अपने काम को बीते 1 साल से उचित रूप से करने वाले एक जज को हटाकर हुई थी।’ रिपोर्ट के मुताबिक गायत्री प्रजापति को 10 करोड़ रुपए की एवज में जमानत दी गई थी। फिलहाल ओपी मिश्रा सेवानिवृत्त हो चुके हैं।

अगर भ्रष्टाचार की जड़ में जाएं तो रिश्वतखोरी ही भ्रष्टाचार की सबसे बड़ी इकाई है। जस्टिस मिश्रा की रिश्वतखोरी इस बात की गवाह है कि न्यायपालिका में व्यापक तरीके से भ्रष्टाचार व्याप्त है। न्यायपालिका भी कोई दूध की धुली हुई नहीं है। अब एक प्रमुख सवाल यह उठता है कि सर्वोच्च न्यायालय को जस्टिस कर्णन द्वारा न्यायपालिका में भ्रष्टाचार संबंधी एक पत्र से इतनी बोखलाहट हो गई कि सर्वोच्च न्यायालय के उन्ही सात भ्रष्टाचार के आरोपी जजों की पीठ ने जस्टिस कर्णन के खिलाफ एकतरफा कार्यवाही करते हुए जस्टिस कर्णन के आरोप को अदालत की अवमानना माना। लिहाजा जस्टिस करनन को 6 महीने के लिए जेल की सजा हुई। वर्तमान में जस्टिस कर्णन को गिरफ्तार कर जेल के हवाले कर दिया गया है।

आज ओ0 पी0 मिश्रा के मामले में सर्वोच्च न्यायालय खामोश क्यों है? भ्रष्टाचार संबंधी एक पत्र अदालत की अवमानना है तो क्या जस्टिस मिश्रा की रिश्वतखोरी भ्रष्टाचार नहीं है? क्या जस्टिस मिश्रा की रिश्वतखोरी अदालत की अवमानना नहीं है? असलियत यह है कि देश के निर्भीक इस योद्धा जस्टिस कर्नन के साथ जातीय उत्पीड़न हो रहा है।

अदालत खुद को राज्य का अंग नहीं मानती हैं, ताकि आरटीआई के दायरे से दूर रहें। अजीब बात है इन जजों तथा न्यायपालिका को तनख्वाह एवं निधि सरकार के संचित कोष से मिलती है लेकिन फिर भी ये राज्य के अंग नहीं हैं। जबकि पूरी दुनिया में यह प्रचलित सिद्धांत है कि राज्य के तीन अंग होते हैं-विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका। मेरा एक सवाल है कि अगर न्यायपालिका राज्य का अंग नहीं है तो फिर क्या निजी इकाई है? (If judiciary is not a state, is it private entity?) दरअसल सारा सवाल न्यायपालिका में व्याप्त अपर्याप्त प्रतिनिधित्व पर टिका हुआ है।

पूर्व राष्ट्रपति के. आर. नारायण ने फरवरी 1999 में अदालतों में अनुसूचित जातियों तथा  अनुसूचित जनजातियों के प्रतिनिधित्व ना होने पर अपना एतराज जताते हुए कहा था की ‘अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों में पर्याप्त योग्यता है। अदालतों में उन्हें प्रतिनिधित्व नहीं दिया जाना किसी भी सूरत में न्यायसंगत नहीं माना जा सकता है।’

विधायिका और न्यायपालिका द्वारा हमेशा योग्यता शब्द की आड़ में न्यायपालिका में आरक्षण का विरोध होता रहता है। माननीय संसद और न्यायालय, आप सब की योग्यता सिर्फ इतनी है कि आज अदालतों में 3 करोड़ से ज्यादा मामले पेंडिंग है। और दूसरी बात यह है कि अदालत में SC/ ST/OBC और अल्पसंख्यकों की पर्याप्त भागीदारी नहीं है। अतः हम इंसाफ की उम्मीद नहीं कर सकते हैं। मैं अदालतों से बहुत ही सम्मान और आदर किंतु दृढ़ता के साथ कहना चाहूंगा कि हमें न्यायपालिका में हमारी आबादी के हिसाब से प्रतिनिधित्व चाहिए क्योंकि न्यायपालिका में आरक्षण हमारे लिए सिर्फ नौकरी का सवाल नहीं बल्कि पर्याप्त प्रतिनिधित्व का सवाल है, ईमानदार एवं त्वरित न्याय मिलने का सवाल है।

सूरज कुमार बौद्ध (लेखक भारतीय मूलनिवासी संगठन के राष्ट्रीय महासचिव हैं।)

Read also –

Representation (aka Reservation) is a Must in Judiciary – Saharanpur Case

Comparative Study of Reservations in Malaysia and India

Reservation is the Public Policy to Make India Democratic

Support Justice Karnan and Demand of Reservation in Judiciary

Caste Of Indian Courts – What Is Wrong With The Indian Judicial System?

Pimps and Procurers of Judiciary – Bane of Indian democracy

Sponsored Content

1 comment

Add yours

+ Leave a Comment