उना से आई फिर आवाज़,नहीं सहेंगे हिंदु राष्ट्र, भगवा आतंकवाद और पूंजीवाद!
उना कांड की पहली बरसी पर राष्ट्रीय आह्वान, गुजरात में होगा ‘आज़ादी कूच’
दलित, मुस्लिम, मज़दूर और किसान साथ मिलकर मांगेगे तीन साल का हिसाब
बहुजन,मज़दूर और किसान साथ मिल फिर ललकारेंगे ‘गाय की पूंछ तुम रखो, हमें हमारी जमीन दो’
साथियों,
आप जानते हैं, 11 जुलाई को उना के दलितों के उत्पीड़न की जगानेवाली घटना को एक वर्ष होने जा रहा है. जिस तरह पिछले वर्ष 11 जुलाई को गुजरात के गिर सोमनाथ जिले के मोटा-समधियाला गांव के बालू भाई सरवैया और उनके चार बेगुनाह लड़को को दिन दहाड़े, भर बाजार गाड़ी के साथ बांधकर पुलिस थाने के सामने बेरहमी के साथ मारा गया और जिस तरह इस कारनामे को अंजाम देने वाले इन तथाकथित गौ रक्षकों ने खुद ही अपने इस कारनामे को सोशल मीडिया पे वायरल किया, उससे पूरा देश हिल गया था.
इस अमानवीय कारनामे को अंजाम देने वाले लोग खुद ही अपनी इस घिनौनी हरकत को सोशल मीडिया पे वायरल करे उससे पता चल जाता है कि यह तथाकथित गौ रक्षक कितना बेखौफ महसूस करते और उनको राजसत्ता की कितना संरक्षण मिला हुआ है.
इस एक साल में हमने देखा कि दलित उत्पीड़न की घटनाएँ और तथाकथित गौरक्षा की राजनीति रुकने का नाम नहीं ले रही. बल्कि यह घटनाएं और भी बढ़ती जा रही हैं. उना, दादरी, लातेहार, अलवर, सहरानपुर यह सभी घटनाएं संघ और भाजपा के इस देश को हिंदूराष्ट्र बनाने की बेताबी का नतीजा हैं.
जिस तरह गुजरात के दलितों ने वहाँ के मुस्लिम और प्रगतिशील साथियों के साथ मिलकर ‘गाय की पूंछ आप रखो, हमे हमारी जमीन दो’ के नारे के साथ उठ खड़े हो कर एक आन्दोलन को जन्म दिया, वह दलित आंदोलन के इतिहास की एक माइलस्टोन घटना है. गुजरात के सुरेंद्रनगर जिले के डी.ऍम. की ऑफिस के सामने मरी हुई गाय छोड़कर प्रतिरोध का जो प्रतीक पेश किया वह भी बेमिसाल था. इस के बाद 31 जुलाई को अहमदाबाद में हुए दलित महासम्मेलन में पहली बार 20 हजार दलितों ने बाबा साहब अम्बेडकर के नाम पर शपथ ली कि,”आज के बाद मृत पशु की खाल निकालने का काम नहीं करेंगे और सरकार हमारा जाति आधारित परंपरागत पेशा छुड़वाकर हमें कम से कम पांच एकड़ जमींन का आवंटन करे.”
इस दलित महासम्मलेन के बाद अहमदाबाद से उना तक एक ऐतिहासिक दलित अस्मिता यात्रा निकाली गई जिसमे हजारों की संख्या में लोगों ने हिस्सा लिया. इस आंदोलन के प्रभाव ने मोदी जी के विकास और सब का साथ- सबका विकास जैसे नारों की जमकर पोल खोल दी.
आंदोलन ने इस हद तक गुजरात की सत्ता को हिला कर रख दिया कि गुजरात की तत्कालीन मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल को इस्तीफा देना पड़ा और मोदीजी (जो कभी मुंह खोलते नही) उन्हें भी दबाव में आ कर कहना पड़ा कि जो लोग गौ-रक्षा के नाम पर दुकान खोल कर बैठे हैं उनसे वे गुस्सा हैं और सभी राज्यों की सरकारों को कहा कि वे गौ-रक्षकों का एक डोजियर तैयार करे.
आन्दोलन ने पूरे देश मे लाखों युवाओं और सारे प्रगतिशील साथियों को नई ऊर्जा भी प्रदान की. आन्दोलन की दो बड़ी उपलब्धियां ये भी रही कि कुछ गांवों में दलितों ने मृत पशुओं की खाल निकालने का काम छोड़ दिया और अहमदाबाद जिले के जिन गांवों में 26 साल पहले आवंटित की गई जमीन का कब्ज़ा नहीं मिल रहा था वैसी 300 एकड़ जमीन का कब्जा भी मिला.
आज आत्मसन्मान और अस्तित्व दोनों की इस लड़ाई को राष्ट्रीय दलित अधिकार मंच के बैनर तले हम गुजरात में आगे बढ़ा रहे हैं.
हम मानते हैं कि आत्म-सम्मान और अस्तित्व की यह लड़ाई आगे बढती रहे और दलित जाति आधारित परम्परागत पेशा छोड़कर जमीन, वैकल्पिक रोज़गार, सरकारी नौकरी वगैरह की लड़ाई लड़े और उना के साथ-साथ दादरी, अलवर, लातेहार के पीड़ितों के साथ मिलकर गुजरात में उना की घटना के एक साल पर दोबारा एक मोर्चा खोले, दोबारा ‘गाय की पूंछ आप रखो, हमे हमारी जमीन दो’ के नारे के साथ एक पदयात्रा निकाले. उना के आंदोलन की विरासत को आगे ले जाना होगा.
इसी मकसद से दलितों के साथ साथ गुजरात और इस देश के मुस्लिम, किसान, मजदूर और बेरोजगार युवा वर्ग के सवालों को जोड़कर हम नार्थ गुजरात के मेहसाना जिले से बनासकांठा तक एक आज़ादी कूच निकालेंगे. हमें जातिवाद और तथाकथित गौ रक्षको के आतंक के साथ साथ हमें मंहगाई , किसानो की आत्महत्या, मज़दूरों के शोषण और बेरोजगारी से भी आज़ादी चाहिए, सो हम इसे आज़ादी कूच का नाम दे रहे हैं.
दूसरी एहम बात यहाँ हम यह भी रखना चाहते हैं कि मोटा-समढियाला गांव जहा के दलितों को गाय का चमड़ा उतारने के नाम पर ज़लील करके पीटा गया था वहां गुजरात की तत्कालीन मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल ने जाकर जो वचन दिए थे उस में से एक भी वचन का पालन नहीं किया. यहाँ तक की इस मामले के आरोपियों को जमानत मिली, इसे गुजरात सरकार की तरफ से सर्वोच्च अदालत में चेलेंज तक नहीं किया गया. आज भी वहां के दलित खौफ में जी रहे है. दलित उत्पीड़न के मामलों में गुजरात सरकार का रवैया इतना ढीला ढाला है कि गुजरात में उत्पीड़न के मामलों में रेट ऑफ़ कन्विक्शन केवल तीन परसेंट है. यानि अगर दलित उत्पीड़न के 100 केस होते है तब केवल तीन लोगो को सजा होती है. गुजरात में आज भी उत्पीड़न कानून के मुताबिक ऐसा एक भी स्पेशल कोर्ट नहीं है जिसमें केवल दलित और आदिवासी उत्पीड़न के मामले ही चलाए जाते हो.
उना के आंदोलन के चलते माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को नट-सम्राट की तरह कहना पड़ा कि,’मारना है तो मुझे मारो मेरे दलित भाईओ को मत मारो.’ इसके अलावा मार्च 2016 में उन्होंने अंबेडकर मेमोरियल लेक्चर के दौरान खुद को अंबेडकर भक्त भी घोषित किया. लेकिन उना से सहारनपुर तक और रोहित वेमुला से चंद्रशेखर रावण तक, उनके और उनकी सरकार के दलित प्रेम की सच्चाई सामने आ चुकी है. हद तो तब हुई जब गुजरात की विजय रुपानी सरकार ने ‘नागपुर’ के इशारो पर एक ऐसा कानून बनांया की यदि गाय को मारा तो आजीवन कारावास. क्या यही सबक लिया उन्होंने दलितों के उना आंदोलन से.
इस देश में हर रोज़ दो दलितों की हत्या कर दी जाती है , भीड़ बनाकर आये दिन कुछ लोग सड़क चलते किसी व्यक्ति को हत्या कर देते है. लेकिन कानून बनता है गाय को मारने पर, इंसान को मारने पर नहीं.
इसलिए ‘आज़ादी कूच’ के दौरान गुजरात के गांव गांव में हम इन्साफ पसंद लोग डिमांड करेंगे की गुजरात ही नहीं हर राज्य सरकार समेत केंद्र सरकार एक ऐसा विशेष कानून बनाये जिसके चलते उना, दादरी, लातेहार, अलवर की तरह भीड़ के हाथो किसी भी इंसान की हत्या न हो. हम चाहते है की रूल ऑफ़ लॉ हो और चैन से जीने की आज़ादी हो.
इस आज़ादी कूच का अंतिम पड़ाव होंगे बनासकांठा या रापर तहसील के वह गाँव जहाँ दलित समाज के भूमिहीन मज़दूरों को जमींन का आवंटन केवल कागज़ पे हुआ. और 32 साल से दलितों को आवंटित की गयी उन ज़मीनो के ऊपर तथाकथित दबंग जातियों का गैर क़ानूनी कबज़ा है. सरकार नयी एक इंच जमींन का आवंटन करने को तैयार नहीं, जिसका साफ मतलब यही होता है कि सरकार चाहती है कि गुजरात और इस देश के दलित गटर में उतरना , मैला उठाना जैसे काम युगो युगो तक करते रहे और एक तरह से मनुस्मृति ऑपरेट होती रहे. गुजरात में हज़ारो एकड़ जमीन का आवंटन केवल कागज़ पे हुआ है. मतलब की गुजरात की सरकार चाहती है दलित कागज़ पे खेती करे. इस तरह हज़ारो एकड़ ज़मींन का आवंटन केवल कागज़ पे देकर एक तरह से दलितों की पीड़ा का मज़ाक बनाया जा रहा है. यदि कॉर्पोरेट घरानो को जमीन का आवंटन होता है तब उस का कब्ज़ा (पजेशन) रातोंरात दिया जाता है. लेकिन दलितो और भूमिहीनों को पिछले ४० साल से बांटी गयी १,६३,८०८ एकड़ में से ज्यादातर जमीन का आवंटन केवल कागज़ पे ही रह गया है. हम इस यात्रा के दौरान रापर या बनासकांठा के जिस गांव में जमीन के आवंटन के बावजूद कब्ज़ा नहीं सौंपा गया, वह कब्ज़ा लेने जायेंगे और वहां हमारे संघर्ष के प्रतिक के रूप में तिरंगा झंडा लहरायेंगे , यही होगी हमारे लिए सच्ची आज़ादी. ज़मीन की लड़ाई आत्मसम्मान की लड़ाई भी है और सामंती आर्थिक-शोषण से मुक्ति की भी. जाति-निर्मूलन और आर्थिक गुलामी से मुक्ति ही सच्ची आज़ादी की ओर ले जा सकते हैं. इसीलिए हम इस आज़ादी कूच में इन सब मसलों जनचेतना का विस्तार करेंगे और आज़ादी की अवधारणा की नई व्याख्या भी.
उम्मीद है कि हर इंसाफपंसद,लोकतांत्रिक नागरिक इसमें अपनी भूमिका निबाहने के लिए आगे आएगा और इस कूच को सफल बनाएगा.
— जिग्नेश मेवानी, संयोजक, राष्ट्रीय दलित अधिकार मंच
Image Credit – Indian Express
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